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इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार पहुँचे। वहाँ भद्रा सेठानी रहती थी। भद्रा से व्यापारियों का परिचय कराया गया। व्यापारियों ने कहा-"हम शालिभद्र से मिलने आये हैं। उन्हें रत्न-कम्बल दिखलायेंगे।" भद्रा ने कहा-"आप शालिभद्र से नहीं मिल सकेंगे। आप अपने रत्न-कम्बल मुझे ही दिखला दे।" कुछ संकोच व कुछ विस्मय से व्यापारी भद्रा के सम्मुख जमकर बैठे । एक रत्न-कम्बल निकाला और भद्रा के हाथ में दिया । भद्रा ने बिना उसका मूल्य पूछे ही कहा-"आपके पास ऐसे कितने कम्बल हैं ?"
व्यापारी-“सोलह ।"
भद्रा-"मुझे बत्तीस चाहिए ; क्योंकि मेरी बहुएं बत्तीस हैं । कम हों, तो मैं किसे दूं व किसे न दूं?"
व्यापारी-“पहले आप एक कम्बल का मूल्य तो पूछ लीजिये।" भद्रा- “उसकी आप चिन्ता न करें। जो भी मूल्य होगा, चुकाया जायेगा।"
व्यापारी आश्चर्यान्वित थे। उन्हें लगता था, हम स्वप्न-लोक में तो कहीं विहार नहीं कर रहे हैं । भद्रा ने कहा-"खैर, आपके पास जितनी कम्बले हैं ; वे यहाँ रख दें।" व्यापारियों ने वैसा ही किया। भद्रा ने मुख्य मुनीम को बुला कर कहा-"जो भी मूल्य इनका हो, इन्हें चुका दिया जाये।" भद्रा अन्य कार्य में संलग्न हो गई। व्यापारियों को लेकर मुनीम धन-मण्डार पर आया। व्यापारियों से पूछा- “एक कम्बल का क्या मूल्य है ?" व्यापारियों ने कहा-“सवा लाख स्वर्ण मुद्राएँ।" मुनीम ने भण्डारी को आदेश दिया"सोलह कम्बलों का मूल्य सवा लाख प्रति कम्बल के हिसाब से इन्हें चुका दिया जाये।" भण्डारी ने यथाविधि सब कुछ सम्पन्न किया। व्यापारियों के हर्ष और विस्मय का क्या पार था ? वे यह कहते हुए हर्म्य से बाहर आये कि भला हो, उन बेचारी दासियों का जो हमें यहाँ ले आई । हम तो आशा ही छोड़ चुके थे कि हमारी एक कम्बल भी कहीं बिक सकेगा?"
अगले दिन श्रेणिक की साम्राज्ञी चेलणा ने आग्रह पकड़ा, एक कम्बल तो मेरे लिए खरीदना ही होगा। श्रेणिक क्या करता? उसने व्यापारियो को पुनः राज-सभा में बुलाया। व्यापारियों ने कहा-"राजन् ! हमारी तो सोलह ही रत्न-कम्बलें बिक चुकी हैं।" सारी वस्तुस्थिति से अवगत हो, श्रेणिक स्वयं विस्मित हो गया। राजा ने अभयकुमार को भद्रा के पास भेजा। उसने वहां जाकर कहा-"गृहपत्नी ! तुम्हारे पास सोलह कम्बलें हैं । मूल्य लेकर भी एक कम्बल राजा को भेंट कर दो।" भद्रा ने कहा- "मंत्रीवर अभयकुमार ! मैंने एक-एक कम्बल के दो-दो टुकड़े कर बत्तीस बहुओं को बाँट दिए हैं।" अभयकुमार ने कहा"दो टुकड़े मंगवा दो। रानी का हठ मैं किस तरह पूरा करूंगा।" भद्रा ने दासियों से पूछवाया तो मालूम पड़ा कि सभी बहुओं ने अपने-अपने टुकड़ों को पैर पोंछने का अंगोछा बना लिया है । अभयकमार इन सारी बातों की जानकारी कर राज-सभा में आया। भद्रा भी राजा के योग्य बहुमूल्य उपहार ले सभा में आई। भद्रा ने भेंट करते हुए कहा--"राजन् !
माने। शालिभद्र और उसकी पत्तियाँ देव-दष्य वस्त्र ही पहनती हैं। मेरे पति अब देव-गति में हैं और वे ही प्रतिदिन उन्हें वस्त्र, आभूषण, अंग-राग आदि देते हैं। रत्न-कम्बल का स्पर्श मेरी बहुओं को कठोर प्रतीत हुआ है और इसीलिए उन्होंने उसका उपयोग पर
बुरान
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