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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
शालिभद्र
राजगह के शालिभद्र, जिनके वैभव को देखकर राजा बिम्बिसार भी विस्मित रह गए थे; भिक्षुजीवन में आकर उत्कट तपस्वी बने। मासिक, द्विमासिक और त्रैमासिक तप उनके निरन्तर चलता रहता। एक बार महावीर बृहत् भिक्षु-संघ के साथ राजगृह आए। शालिभद्र भी साथ थे। उस दिन उनके एक महीने की तपस्या का पारण होना था। उन्होंने नतमस्तक हो, महावीर से भिक्षार्थ नगर में जाने की आज्ञा मांगी। महावीर ने कहा- “जाओ, अपनी माता के हाथ से 'पारणा' पाओ।" शालिभद्र अपनी माता भद्रा के घर आए। भद्रा महावीर और अपने पुत्र के दर्शन को तैयार हो रही थी। उत्सुकता में उसने घर आए मुनि की ओर ध्यान ही नहीं दिया। कर्मकरों ने भी अपने स्वामी को नहीं पहचाना। शालिभद्र बिना भिक्षा पाए ही लौट गए। रास्ते में एक अहीरिन मिली। दही का मटका लिए जा रही थी। मुनि को देख कर उसके मन में स्नेह जगा। रोमाञ्चित हो गई। स्तनों से दूध की धारा बह चली। उसने मुनि को दही लेने का आग्रह किया। मुनि दही ले कर महावीर के पास आए । 'पारणा' किया। महावीर से पूछा-'भगवन् ! आपने कहा था, माता के हाथ से 'पारणा' करो । वह क्यों नहीं हुआ ?" महावीर ने कहा- "शालिभद्र ! माता के हाथ से ही 'पारणा' हुआ है। वह अहीरिन तुम्हारे पिछले जन्म की माता थी।"
महावीर की अनुज्ञा पा शालिभद्र ने उसी दिन वैभार गिरि पर जा आमरण अनशन कर दिया। भद्रा समवशरण में आई। महावीर के मुख से शालिभद्र का भिक्षाचरी से लेकर अनशन तक का सारा वृत्तान्त सना। माता के हदय पर जो बीत सकता है. वह बीता। तत्काल वह पर्वत पर आई। पुत्र की उस तप:-क्लिष्ट काया और मरणाभिमुख स्थिति को देख कर उसका हृदय हिल उठा। वह दहाड़ मार कर रोने लगी। राजा बिम्बिसार ने उसे सान्त्वना दी। उद्बोधन दिया। वह घर गई। शालिभद्र सर्वोच्च देव-गति को प्राप्त हुए। उनके गृह जीवन की विलास प्रियता और भिक्षु-जीवन की कठोर साधना दोनों ही उत्कृष्ट थीं।
स्कन्दक
स्कन्दक महावीर के परिव्राजक भिक्षु थे। परिव्राजक-साधना से भिक्षु-साधना में आना और उसमें उत्कृष्ट रूप से रम जाना उनकी उल्लेखनीय विशेषता थी। आगम बताते हैं-स्कन्दक यत्नापूर्वक चलते, यत्नापूर्वक ठहरते, यत्नापूर्वक बैठते, यत्नापूर्वक सोते, यत्नापूर्वक खाते और यत्नापूर्वक बोलते । प्राण, भूत, जीव, सत्त्व के प्रति संयम रखते। वे कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक ईर्या आदि पाँचों समितियों से संयत, मनः संयत, वच: संयत, काय संयत, जितेन्द्रिय, आकांक्षा-रहित, चपलता-रहित और संयमरत थे।'
स्कन्दक भिक्षु स्थविरों के पास अध्ययन कर एकादश अंगों के ज्ञाता बने। उन्होंने भिक्षु की द्वादश प्रतिमा आराधी। भगवान् महावीर से आज्ञा लेकर गुणरत्नसंवत्सर-तप तपा। इस उत्कट तप से उनका सुन्दर, सुडोल और मनोहारी शरीर रूक्ष, शुष्क और निर्मास हो गया। चर्मवेष्टित हड्डियां ही शरीर में रह गईं। जब वे चलते, उनकी हड्डियाँ शब्द करतीं,
१. भगवती सूत्र, श० २, उ०१।
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