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५६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ १. नियरिम-जो साधु उपाश्रय में पादोपगमन अनशन करते हैं, मृत्युपरान्त उनका शव संस्कार के लिए उपाश्रय से बाहर लाया जाता है। अतः वह देह-त्याग निर्झरिम कहलाता है। निर्हार का तात्पर्य है-बाहर निकालना। २. अनिर्हारिम-जो साधु अरण्य में ही पादोपगमन पूर्वक देह-त्याग करते हैं, उनका शव संस्कार के लिए कहीं बाहर नहीं ले जाया जाता; अत: वह देह-त्याग अनिर्हारिम
कहलाता है । पाप-अशुभ कर्म-पुद्गल । उपचार से पाप के हेतु भी पाप कहलाते हैं। पारिणामिकी बुद्धि--दीर्घकालीन अनुभवों के आधार पर प्राप्त होने वाली बुद्धि । पार्श्वस्थ-केवल साधु का वेष धारण किये रहना, पर आचार का यथावत् पालन नहीं
करना। पार्श्वनाथ-संतानीय-भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के । पुण्य-शुभ कर्म-पुद्गल । उपचार से जिस निमित्त से पुण्य-बन्ध होता है, वह भी पुण्य कहा
जाता है। पौषष (पोवास)-एक अहोरात्र के लिए चारों प्रकार के आहार और पाप पूर्ण प्रवृत्तियों
का त्याग। प्रज्ञप्ति आदि विद्या-१. प्रज्ञप्ति, २. रोहिणी, ३. वज्रश्रृंखला, ४. कुलिशाङ्कशा, ५.
चक्रेश्वरी, ६. नरदत्ता, ७. काली, ८. महाकाली, ६. गौरी, १०. गान्धारी, ११. सर्वास्त्रमहाज्वाला, १२. मानवी, १३. वैरोय्या, १४. अच्छुप्ता, १५. मानसी और
१६. महामानसिका-ये सोलह विद्या देवियाँ हैं। प्रतिचोदना-मत से प्रतिकूल वचन। प्रतिसारणा-मत से प्रतिकूल सिद्धान्त का स्मरण । प्रत्याख्यान-त्याग करना । प्रत्युपवार-तिरस्कार । प्रथम सप्त अहोरात्र प्रतिमा-साधु द्वारा सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास;
उत्तानक या किसी पाश्र्व से शयन या पालथी लगाकर नामादि से बाहर कायोत्सर्ग
करना। प्रवचन-प्रभावना-नाना प्रयत्नों से धर्म-शासन की प्रभावना करना। प्रवतिनी-आचार्य द्वारा निर्दिष्ट वयावृत्त्व आदि धार्मिक कार्यों में साध्वी-समाज को प्रवृत्त
करने वाली साध्वी -प्रभुत्वा । प्रवृत्त परिहार (पारिवृत्य परिहार). शरीरान्तर प्रवेश । प्रवृत्ति वादुक-समाचारों को प्राप्त करने वाला विशेष कर्मकर पुरुष । प्राण-द्वीन्द्रिय (लट, अलसिया आदि), त्रीन्द्रिय (जू, चींटी आदि) और चतुरिन्द्रिय (टीड,
पतंग, भ्रमर आदि) प्राणी । जीव का पर्यायवाची शब्द । प्राणत-दसवां स्वर्ग । देखें, देव ।
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