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________________ २१६ आगम और त्रिपट : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ इनका अंत ही जान पड़ता है । कामों को बिना समाप्त किये ही पिता और पितामह मृत्यु को प्राप्त हो गए ।" अनुरूद्ध के हृदय में सहसा विराग का अंकुर फूट पड़ा और वह बोला- “तब तो आप ही घर-गृहस्थी सम्भालें। मैं तो प्रब्रजित होऊंगा ।" अनुरुद्ध शाक्य माता के पास आया और अपने प्रव्रजित होने के अभिप्राय से उसे उसके कथन का प्रतिवाद करते हुये मृत्यु के बाद भी मैं तुमसे अनिच्छुक की स्वीकृति दूं ; यह कभी भी नहीं सूचित करते हुये उसने आज्ञा की याचना की । माता ने कहा—“तात ! अनुरुद्ध ! तुम दोनों मेरे प्रिय पुत्र हो । नहीं होऊंगी तो फिर जीवित रहते हुये मैं तुम्हें प्रव्रज्या हो सकता ।" अनुरुद्ध निरुत्साह नहीं हुआ। उसने दो-तीन बार अपने अभिप्राय को फिर दुहराया। माता अपने निश्चय पर अडिग रही। उसने एक मध्यम मार्ग निकाला । उस समय भद्दिय शक्यों का राजा था । वह अनुरुद्ध का परम मित्र था । माता जानती थी कि वह कभी भी प्रव्रजित नहीं होगा; अत: अपने पुत्र से कहा -- --- "यदि भद्दिय प्रव्रजित होता हो, तो मैं तुझे भी प्रव्रज्या की अनुज्ञा दे सकती हूं ।" अपनी जटिल पहेली का सीधा-सा उत्तर पाकर अनुरुद्ध मद्दिय के पास आया और - "सौम्य ! मेरी प्रव्रज्या तेरे अधीन है ।" कहा भद्दिय ने तत्काल उत्तर दिया-- " सौम्य ! यदि तेरी प्रवज्या मेरे अधीन है, तो मैं तुम्हें उससे मुक्त करता हूं । तू सुख से प्रवजित हो जा।" अनुरुद्ध ने कोमल शब्दों में कहा - "श्राश्रो, सौम्य ! हम दोनों प्रव्रजित हों।" भद्दिय ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए उत्तर दिया – “मैं तो प्रव्रजित नहीं हो सकता । तेरे लिये जो भी अपेक्षित है, मैं सहर्ष करूंगा। तू प्रव्रजित हो जा । " अनुरुद्ध ने अपनी स्थिति का उद्घाटन करते हुये माता द्वारा प्रस्तुत शर्त का उल्लेख किया और बलपूर्वक कहा - "तू वचन बद्ध है । तुझे मेरे साथ प्रव्रजित होना होगा । हम दोनों एक साथ एक ही मार्ग का अवलम्बन करेंगे ।" उस समय के लोग सत्यवादी होते थे । भद्दिय ने अनुरुद्ध से कहा - " मैं अपने कथन पर अटल हूं । किन्तु, मुझे सात वर्ष का समय चाहिए। उसके बाद हम दोनों एक साथ प्रव्रजित होंगे ।" अनुरुद्ध ने व्यग्रता के साथ कहा- - " सात वर्ष बहुत चिर है । मैं इतना विलम्ब नहीं कर सकता ।" भद्दिय ने कुछ अवधि अल्प करते हुए छ: वर्ष का कहा । विरक्त के लिए छ: वर्ष की अवधि भी बहुत विस्तीर्ण होती है । अनुरुद्ध ने उसका भी प्रतिवाद किया । भद्दिय ने अवधि को घटाते हुए क्रमशः पांच वर्ष, चार वर्ष, तीन वर्ष, दो वर्ष, एक वर्ष, छः मास, पांच मास, चार मास, तीन मास, दो मास, एक मास, एक पक्ष की प्रतीक्षा का कह डाला । अनुरुद्ध के लिये एक पक्ष का समय भी प्रलम्ब था; अत: उसने उसे भी अस्वीकार कर दिया और उसे शीघ्रता के लिये प्रेरित किया । मद्दिय ने अन्ततः कहा - " मित्र ! तू मुझे एक सप्ताह का समय तो दे ताकि मैं अपने पुत्रों और भाइयों को राज्य - भार व्यवस्थित रूप से संभला सकूँ ।” अनुरुद्ध ने भद्दिय का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। सप्ताह की अवधि समाप्त Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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