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________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार १६३ गौतम- "सच्छिद्र नौका पारगामी नहीं होती, किन्तु, छिद्र-रहित नौका पार पहुंचाने में समर्थ होती है।" केशीकुमार-"वह नौका कौनसी है?" गौतम-“शरीर नौका है । आत्मा नाविक है। संसार समुद्र है, जिसे महर्षिजन सहज ही तैरते हैं।" केशीकुमार-"बहुत सारे प्राणी घोर अन्धकार में हैं । इन प्राणियों के लिए लोक में उद्योत कौन करता है ?" गौतम- "उदित हुआ सूर्य लोक में सब प्राणियों के लिए उद्योत करता है।" केशीकुमार-"वह सूर्य कोनसा है ?" गौतम--"जिनका संसार क्षीण हो गया है, ऐसे सर्वज्ञ जिन भास्कर का उदय हो चुका है। वे ही सारे विश्व में उद्योत करते हैं।" केशीकुमार-"शारीरिक और मानसिक दु:खों से पीड़ित प्राणियों के लिए क्षेम और शिवरूप तथा बाधा-रहित आप कौनसा स्थान मानते हैं ?" गौतम-“लोक के अग्र भाग में एक ध्र वस्थान है, जहाँ जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना नहीं है। किन्तु, वहाँ आरोहण करना नितान्त दुष्कर है।" केशीकुमार-"वह कौनसा स्थान है ?" गौतम-"महर्षियों द्वारा प्राप्त वह स्थान निर्वाण, अव्याबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध; इन नामों से विश्रुत है।" मुने! वह स्थान शाश्वत वास का है, लोक के अग्रभाग में स्थित है और दुरारोह है । इसे प्राप्त कर भव-परम्परा का अन्त करने वाले मुनिजन चिन्तन-मुक्त हो जाते हैं। श्रमण केशीकुमार ने चर्चा का उपसंहार करते हुए कहा-: महामुने गौतम ! आपकी प्रज्ञा साधु है। आपने मेरे संशयों का उच्छेद कर दिया है। अतः हे संशयातीत! सर्व सत्र के पारगामिन ! आपको नमस्कार है। गणघर गौतम को वन्दना के अनन्तर श्रमण केशीकुमार ने अपने बृहत् शिष्य-समुदाय सहित उनसे पंच महाव्रत रूप धर्म को भाव से ग्रहण किया और महावीर के भिक्षु-संघ में प्रविष्ट हुए। केशीकुमार श्रमण की तरह कालासवेसियपुत्त अनगार, गंगेय अनगार, पेढाल पुत्त उदक आदि भी तत्त्व-चर्चा के पश्चात् महावीर के संघ में चतुर्यामात्मक दीक्षा से पंच महाव्रत रूप दीक्षा में आये। इन घटना-प्रसंगों से यह इतिहास भी हमारी आँखों के सामने आ जाता है कि पार्श्व की परम्परा महावीर की उदीयमान संघ में कैसे लीन हुई और उन दोनों के बीच क्या-क्या भेद व तादात्म्य थे। १. उत्तरज्झयणाणि अ० २३ के आधार से। २. भगवती, शतक १, उद्देशक ९ । ३. वही, शतक ९ उद्देशक ३२। ४. सूयगडांग, श्रु० २, अ० ७ । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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