________________
१६२
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
समूल उखाड़ कर फेंक दिया है; अतः मैं विष-सन्निभ फलों के भक्षण से सर्वथा मुक्त हो गया हूँ ।"
केशीकुमार - "महाभाग ! वह लता कौन सी है ?"
गौतम — “महामुने ! संसार में तृष्णा लता बहुत भयंकर है और दारुण फल देने वाली है । उसका न्याय- पूर्वक उच्छेद कर मैं विचरता हूँ ।
केशीकुमार - "मेघाविन् ! शरीर में घोर तथा प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित हो रही है ! वह शरीर को भस्मसात् करने वाली है । आपने उसे कैसे शान्त किया, कैसे बुझाया ?"
गौतम - " तपस्विन् ! महामेघ से प्रसूत उत्तम और पवित्र जल को ग्रहण कर मैं उस अग्नि को सींचता रहता हूं; अत: सिंचित की गई अग्नि मुझे नहीं जलाती ।"
केशीकुमार - "महाभाग ! वह अग्नि और जल कौन सा कहा गया है ?"
गौतम - " धीमन् ! कषाय अग्नि है। श्रुत, शील और तप जल है । श्रुत जल-धारा से अभिहत वह अग्नि मुझे नहीं जलाती।"
केशीकुमार - "तपस्विन् ! यह साहसिक, भीम, दुष्ट, अश्व चारों ओर भाग रहा है। उस पर चढ़े हुए भी आप उसके द्वारा उन्मार्ग में कैसे नहीं ले जाये गये ?"
गौतम - "महामुने ! भागते हुए अश्व को मैं श्रुतरूप रस्सी से बांधे रखता हूँ; अतः वह उन्मार्ग में नहीं जा पाता, सन्मार्ग में ही प्रवृत्त रहता है ।"
केशीकुमार - "यशस्विन् ! आप अश्व किसको कहते हैं ?"
" गौतम - " व्रतिवर ! मन ही दु:साहसिक व भीम अश्व है । वही चारों ओर भागता है । मैं कथक अश्व की तरह धर्म-शिक्षा के द्वारा उसका निग्रह करता हूँ ।"
केशीकुमार — "मुनिपुंगव ! संसार में ऐसे बहुत से कुमार्ग हैं, जिन पर चलने से जीव सन्मार्ग से च्युत हो जाता है । किन्तु, आप सन्मार्ग में चलते हुए उससे विचलित कैसे नहीं होते हैं ?"
गौतम - "व्रतिराज ! सन्मार्ग में गमन करने वालों व उन्मार्ग में प्रस्थान करने वालो को मैं अच्छी तरह जानता हूँ ; अतः सन्मार्ग से हटता नहीं हूँ ।" केशीकुमार - " विज्ञवर ! वह सन्मार्ग और उन्मार्ग कौन-सा है ? "
गौतम – मतिमन् ! कुप्रवचन को मानने वाले सभी पाखण्डी उन्मार्ग में प्रस्थित हैं । सन्मार्ग तो जिन भाषित है । और यह मार्ग निश्चित ही उत्तम है ।"
केशीकुमार - " महर्षे ! महान् उदक के वेग में बहते हुए प्राणियों के लिए शरण और प्रतिष्ठारूप द्वीप आप किसे कहते हैं ?"
गौतम - "यतिराज ! एक महाद्वीप है । वह बहुत विस्तृत है । जल के महान् वेग की वहाँ गति नहीं है । "
केशीकुमार - "महाप्राज्ञ ! वह महाद्वीप कौनसा है ?
?"
गौतम - "ऋषिवर ! जरा-मरण के वेग से डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्मद्वीप प्रतिष्ठारूप है और उसमें जाना उत्तम शरण रूप है ।"
केशीकुमार - "महाप्रवाह वाले समुद्र में एक नौका विपरीत रूप से चारों ओर भाग रही है । आप उसमें आरूढ़ हो रहे हैं । मेरी जिज्ञासा है, फिर आप पार कैसे जा सकेंगे ?"
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org