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इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार
गौतम ने उत्तर दिया-"जिस धर्म में जीवादि तत्त्वों का विनिश्चय किया जाता है, उसके तत्त्व को प्रज्ञा ही देख सकती है। काल-स्वभाव से प्रथम तीर्थङ्कर के मुनि ऋजु जड़ और चरम तीर्थङ्कर के मुनि वक्र जड़ हैं ; किन्तु, मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के मुनि ऋजु प्राज्ञ हैं। यही कारण है कि धर्म के दो भेद हैं। प्रथम तीर्थङ्कर के मुनियों का कल्प दुर्विशोध्य और चरम तीर्थङ्कर के मुनियों का कल्प दुरनुपालक होता है; पर, मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के मुनियों का कल्प सुविशोध्य और सुपालक होता है।"
केशीकुमार-“गौतम ! आपने मेरे एक प्रश्न का समाधान तो कर दिया। दूसरी जिज्ञासा को भी समाहित करें। वर्धमान स्वामी ने अचेलक धर्म का उपदेश दिया है और महामुनि पार्श्वनाथ ने सचेलक धर्म का प्रतिपादन किया है । एक ही कार्य में प्रवृत्त होने वालों में यह अन्तर क्यों ? इसमें विशेष हेतु क्या है ? यशस्विन् ! लिंग-वेष में इस प्रकार अन्तर हो जाने पर क्या आपके मन में विप्रत्यय उत्पन्न नहीं होता?"
___गौतम-"लोक में प्रत्यय के लिए, वर्षादि ऋतुओं में संयम की रक्षा के लिए, संयमयात्रा के निर्वाह के लिए, ज्ञानादि ग्रहण के लिए अथवा 'यह साधु है'; इस पहचान के लिए लिंग का प्रयोजन है। भगवन् ! वस्तुतः दोनों ही तीर्थङ्करों की प्रतिज्ञा तो यही है कि निश्चय में मोक्ष के सद्भूत साधन तो ज्ञान, दर्शन और चरित्र ही हैं।"
केशीकुमार- “महाभाग ! आप अनेक सहस्र शत्रुओं के बीच खड़े हैं । वे शत्रु आपको जीतने के लिए आपके अभिमुख आ रहे हैं। आपने उन शत्रुओं को किस प्रकार जीता ?"
गौतम- "जब मैंने एक शत्रु को जीत लिया, पांच शत्रु जीते गये। पांच शत्रुओं के जीते जाने पर दस और इसी प्रकार मैंने सहस्रों शत्रुओं को जीत लिया।"
केशीकुमार-“वे शत्रु कौन हैं ?"
गौतम-"महामुने ! बहिर्मूत आत्मा, चार कषाय व पाँच इन्द्रियाँ शत्रु हैं। उन्हें जीतकर मैं विचरता हूँ।"
केशीकुमार-“मुने ! लोक में बहुत सारे जीव पाश-बद्ध देखे जाते हैं, किन्तु, आप पाश-मुक्त और लघुभूत होकर कैसे विचरते हैं ?"
“गौतम- "मुने ! मैं उन पाशों को सब तरह से छेदन कर तथा सोपाय विनिष्ट कर मुक्त-पाश और लघुभूत होकर विचरता हूँ।"
"केशीकुमार "भन्ते ! वे पाश कौन से हैं ?
गौतम-"भगवन् ! राग-द्वेष और तीव्र स्नेह रूप पाश हैं, जो बड़े भयंकर हैं। इनका सोद्योग छेदन कर मैं यथाक्रम विचरता हूँ।"
केशीकुमार-“गौतम ! अन्तःकरण की गहराई से उद्भूत लता को, जिसका फलपरिणाम अत्यन्त विष-सन्निभ है, आपने किस प्रकार उखाड़ा?"
गौतम-“मैंने उस लता का सर्वतोमावेन छेदन कर दिया है तथा उसे खण्ड-खण्ड कर
१. अचेलक का अर्थ वस्त्र-विहीनता ही नहीं है। ठाणांग, स्था० ५, उ० ३ के अनुसार
अल्प वस्त्रता भी अचेलक का अर्थ होता है । देखें, पाइयसहमहण्णवो, पृ २४ ।
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