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________________ इतिहास और परम्परा ] परिनिर्वाण उत्तराध्ययन आगम कहा जाता है। प्रधान नामक मरुदेवी माता का अध्ययन कहते-कहते भगवान् पर्यङ्कासन ( पद्मासन) में स्थिर हुए।' तब भगवान् ने क्रमशः बादर काय योग में स्थित रह, बादर मनो-योग और वचन - योग को रोका। सूक्ष्म काय योग में स्थित रह बादर काय योग को रोका; वाणी और मन के सूक्ष्म योग को रोका। इस प्रकार शुक्ल ध्यान का 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति' नामक तृतीय चरण प्राप्त किया । तदनन्तर सूक्ष्म काय-योग को रोक कर 'समुच्छिन्न क्रियाऽनिवृत्ति' नामक शुक्ल ध्यान का चतुर्थ चरण प्राप्त किया। फिर अ, इ, उ, ऋ, लृ के उच्चारण-काल जितनी शैलेशी अवस्था को पार कर और चतुविधि अघाती कर्म-दल का क्षय कर भगवान् महावीर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था को प्राप्त हुए । वह वर्षा ऋतु का चतुर्थ मास था, कृष्ण पक्ष था, पन्द्रहवाँ दिवस था, पक्ष की चरम रात्र अमावस्या थी । एक युग के पाँच संवत्सर होते हैं, 'चन्द्र' नामक वह दूसरा संवत्सर था। एक वर्ष के बारह मास होते हैं, उनमें वह 'प्रीतिवर्द्धन' नाम का चौथा मास था । एक मास में दो पक्ष होते हैं, वह 'नन्दीवर्धन' नाम का पक्ष था । एक पक्ष में पन्द्रह दिन होते हैं, उनमें 'अग्निवेश्य' नामक वह पन्द्रहवां दिन था, जो 'उपशम' नाम से भी कहा जाता है । पक्ष में पन्द्रह रातें होती हैं, वह 'देवानन्दा' नामक पन्द्रहवीं रात थी, जो 'निरति' नाम से भी कही जाती है। उस समय अर्च नाम का लव था, मुहूर्त्त नाम का प्राण था, सिद्ध नाम का स्तोक था, नाग नाम का करण था । एक अहोरात्र में तीस मुहुर्त होते हैं, वह सर्वार्थसिद्ध नामक उन्नतीसवाँ मुहूर्त्त था । उस समय स्वाति नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग था । - १. संपलियंक निसणे – सम्यक् पद्मासनेनोपविष्टः । - कल्पसूत्र, कल्पार्थबोधिनी, पत्र १२३ । २. तेणं कालेणं तेणं समए णं.. बावर्त्तारं वासाई सव्वाउयं पाल इत्ता, खीणे वेयणिज्जाउयनामगोत्ते, इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए बहुवी इक्कंताए, तिहि वासेहिं अद्धनवमेहिय मासेहिं सेसएहि पावाए मज्झिमाए हत्थिपालगस्स रज्जो रज्जुयगसभाए एगे अबीए छट्ठे भत्तेणं अपाणएणं, साइणा नक्ख तेणं जोगमुवागएणं पच्चूसकालसमयं सि, संपलिक निसन्ने, पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाइं पणपन्नं अज्झयणाइं पावफलविवागाइं छत्तीसं च अपुट्ठ-वागरणाई वागरित्ता पधाणं नाम अज्झयणं विभावेमाणे विभावेमाणे कालगए वितिक्कंते समुज्जाए छिन्न- जाइ-जरा-मरण-बंघणे सिद्धे बुद्धे मुते अंतकडे परिनिव्वुडे सन्वदुक्खप्पहीणे । ३. ७ प्राण = १ स्तोक ७ स्तोक = १ लव ७७ लव = १ मुहूर्त्त । ५. संवत्सर, मास, पक्ष, दिन, रात्रि, मुहूर्त्त इनके कल्पार्थबोधिनी, पत्र ११३ । टीकाकार ने इन अभिहित किया है । - भगवती ४. शकुन्यादिकरण चतुष्के तृतीयमिदम् । अमावस्योत्तरार्द्धेऽवश्यं भवत्येतद् । Jain Education International 2010_05 ३३३ - कल्पसूत्र, सू० १४७ । For Private & Personal Use Only सू०, शतक ६, उद्दे० ७ । — कल्पार्थबोधिनी, पत्र, ११२ । समग्र नामों के लिए देखें; कल्पसूत्र, समग्र नामों को 'जैन- शैली' कह कर www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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