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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ वाले दो महापुरुष थे, जो क्रमश: ७२ व ८० वर्ष इस घरातल पर विद्यमान रहे ।' जिज्ञासा का अगला कदम उठा-उनकी समसामयिकता कितने वर्षों की थी और उनमें वयोमान की दृष्टि से छोटे और बड़े कौन थे ? इस ओर भी अनेक चिन्तकों का ध्यान बँटा है और अब तक अनेक महत्त्वपूर्ण प्रयत्न इस दिशा में हुए हैं । विषय बहुत कुछ स्पष्ट हुआ है, पर, निर्विवाद नहीं । आगमों, त्रिपिटकों व इतिहास के परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले प्रसंगों ने विचारकों को नाना निर्णयों पर पहुँचा दिया है। पिछले प्रयत्नों का वर्गीकरण, उनकी समीक्षा तथा अपने स्वतंत्र चिन्तन से प्रस्तुत प्रकरण को एक असंदिग्ध स्थिति तक पहुंचाना नितान्त अपेक्षित है। डा० जेकोबी सर्वप्रथम और महत्त्वपूर्ण प्रयत्न इस दिशा में डा० हरमन जेकोबी का रहा है। डा. मैक्समूलर द्वारा सम्पादित पूर्व के पवित्र ग्रन्थ (Sacred Books of the East) नामक ४० खण्डों की सुविस्तत ग्रन्थमाला के अन्तर्गत खण्ड २२ तथा खण्ड ४५ के अनुवादक डा० जेकोबी रहे हैं। खण्ड २२ में आचारांग और कल्प तथा खण्ड ४५ में उत्तराध्ययन व सूत्रकृतांग-ये चार आगम हैं। डा० जेकोबी ने जैन धर्म को और भी उल्लेखनीय सेवायें दी हैं। २३वें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक पुरुषों की कोटि में लाने का श्रेय भी उनको ही है।२ इतिहास के क्षेत्र में जो यह भ्रम था कि जैन-धर्म बौद्ध-धर्म की ही ए शाखा मात्र है, उसका निराकरण भी मुख्यतः डा. जेकोबी के द्वारा ही हुआ है। उन्होंने जन परम्पराओं के साक्षात् दर्शन की दृष्टि से दो बार भारतवर्ष की यात्राएं भी की थीं। अनेक जैन आचार्यों से उनका यहां साक्षात् सम्पर्क हुआ था। डा० जेकोबी ने भगवान् महावीर और बुद्ध के निर्वाण-प्रसंग की मुख्यतया दो स्थानों पर चची की है और वे दोनों चर्चायें एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं। एक समीक्षा में उन्होंने भगवान् महावीर को पूर्व-निर्वाण-प्राप्त और भगवान् बुद्ध को पश्चात्-निर्वाण-प्राप्त प्रमाणित किया है, तो दूसरी समीक्षा में भगवान् बुद्ध को पूर्व-निर्वाण-प्राप्त और भगवान् महावीर को पश्चात्-निर्वाण-प्राप्त प्रमाणित किया है। १. कल्पसूत्र, १४७ तथा दीघ निकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त, २-३-१६ । P. S. B. E., vol. XLV, introduction to Jaina Sutras, vol. II, p. 21, 1894. ३. S. B. E., vol. XXII introduction to Jaina Sutras, vol. I, pp. 9-19 1884. ४. सन् १९१४, मार्च में उनकी दूसरी भारत-यात्रा हुई थी। लाडनूं में तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालगणी के साथ उनका तीन दिनों का महत्त्वपूर्ण सम्पर्क रहा। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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