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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : १
नगर की सफाई के लिए, दो सौ चण्डाल नालियों की सफाई के लिए, डेढ़ सौ चण्डाल मुर्दे उठाने के लिए और डेढ़ सौ ही श्मशान में प्रातिहारिक के रूप में नियुक्त किये। श्मशान की पश्चिमोत्तर दिशा में चण्डालों का ग्राम बसाया गया । चण्डाल- ग्राम की पूर्वोत्तर दिशा में चण्डालों के लिए एक नीचा श्मशान बनाया गया । श्मशान के उत्तर और पाषाण-पर्वत के बीच शिकारियों के लिए घरों की कतार बनवाई। उसके उत्तर में ग्रामणी वापी तक अनेक तपस्वियों के लिए आश्रम बनवाये । उसी श्मशान के पूर्व में राजा ने जोतिय निगण्ठ के लिए घर बनवाया । उसी स्थान पर गिरि नामक निगष्ठ तथा अन्य भी अनेक मतों के बहुत सारे श्रमण रहते थे । वहीं राजा ने कुम्भण्ड निगण्ठ के लिए एक देवालय बनाया, जो उसके नाम से ही विश्रुत हुआ ।
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देवालय के पश्चिम में तथा शिकारियों के घरों से पूर्व की ओर पाँच सौ अन्य मतावलम्बी' परिवार बसते थे । जोतिय के घर से उस ओर और ग्रामणी वापी से इस ओर परिव्राजकों के लिए एक आश्रम बनवाया । आजीविकों के लिए घर, ब्राह्मणों के लिए निवासस्थान, यत्र-तत्र प्रसूतिका गृह और रोगी - गृह भी बनवाये ।
- महावंश, परिच्छेद १०, श्लो० ७७-७६ व ६१ से १०२ के आधार से ।
समीक्षा
इस समुल्लेख से यह झलक मिलती है कि निर्ग्रन्थ-धर्म समुद्रों पार विदेशों में भी गया था । पाण्डुका भय ( ई० पू० ३७०-३०० ) राजा सम्राट् अशोक से भी लगभग १०० वर्ष पूर्व होता है । महेन्द्र और संघमित्रा से बहुत पूर्व की यह घटना है । जैन साहित्य में इन निगण्ठों की कोई चर्चा नहीं हैं । उक्त घटना-प्रसंग से यह भी स्पष्ट नहीं होता है कि ये निगण्ठ गृही थे या भिक्षुक । जोतिय निगण्ठ को महावंश टीका में 'नगर वर्धकी' कहा गया है ।
४४. वैशाली में महामारी
उस समय हिमालय की उपत्यका में एक कुण्डला नामक यक्षिणी रहती थी । उसके सहस्र पुत्र थे । कुण्डला मर गई । सहस्र यक्ष मनुष्यों के बल का अपहरण करते और महामारी फैलाते । वे दो प्रकार की महामारी फैलाते - एक मण्डलक और एक अधिवास । मण्डलक परिवार के लोगों में फैलती और अधिवास प्रदेश भर के लोगों में। एक बार ये सहस्र यक्ष वैशाली आये । मनुष्यों के बल का अपहरण किया । अधिवास महामारी फैली । उत्तरोत्तर लोग मरने लगे ।
एक-एक कर अनेक देवताओं की लोगों ने आराधना की, पर, रोग शान्त नहीं हुआ । तब लोगों ने एक-एक कर क्रमशः काश्यप पूरण, मस्करी गोशालिपुत्र, ककुद कात्यायन, अजित केस कम्बली सञ्जयिन् वेरट्टिपुत्र और निर्ग्रन्थ ज्ञातिपुत्र को बुलाया । तब भी रोग
१. मिथ्या दृष्टि वाले ।
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