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________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातापुत्त ४४३ शान्त नहीं हुआ । महामारी में जो लोग मरे थे, उनमें से कुछ देवगति में उत्पन्न हुए । उन्होंने आ कर वैशाली - वासियों से कहा--" अनेक कल्पों के पश्चात् लोक में बुद्ध उत्पन्न हुए हैं । वे जहाँ रहते हैं, वहाँ महामारी आदि रोग उत्पन्न नहीं होते ।" तब तोमर लिच्छवी राजगृह से बुद्ध को लेकर आया । उनके प्रवेश मात्र से महामारी रोग शान्त हुआ । सहस्र यक्ष पराभूत हो वंशाली छोड़ गये । — Mahavastu, Tr. by J. J. Jones, vol I. pp. 208 to 209 के आधार से । समीक्षा कथा सारी की सारी बुद्ध की श्लाघा में गढ़ी गई है । जहाँ बुद्ध रहते हैं, वहाँ महामारी आदि रोग नहीं होते; इस विषय में जैन परम्परा की मान्यता है - "जहाँ जिन रहते हैं, वहाँ चारों दिशाओं में पच्चीस-पच्चीस योजना तथा ऊर्ध्व और अधो दिशा में साढ़े बारह योजना तक इति, महामारी, स्वचक्रभय, परचक्रभय, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, उपपात आदि नहीं होते ।” ४५. नमो बुद्धस्स, नमो अरहन्तानं राजगृह में एक सम्यग् - दृष्टि बालक और एक मिथ्या दृष्टि बालक रहता था । जब वे गुल्ली-डण्डा खेलते, तो सम्यग्दृष्टि बालक कहता- 'नमो बुद्धस्स और मिथ्या-दृष्टि बालक कहता – नमो अरहन्तानं । जीत सदा सम्यग् - दृष्टि बालक की होती । मिथ्या दृष्टि बालक के मन में भी बुद्ध के प्रति श्रद्धा जगी और वह भी नमो बुद्धस्स कहने लगा । एक दिन वह अपने पिता के साथ काष्ठ की भरी गाड़ी लेकर जंगल से आ रहा था । मार्ग में श्मशान के पास उन दोनों ने विश्राम किया। बैलों को भी गाड़ी से खोल दिया । खुले बैल नगर में चले गये । कुछ समय पश्चात् पिता भी बैलों को खोजते खोजते नगर में चला गया । वह बैलों को लेकर वापस लौटने लगा, तो नगर-द्वार बन्द मिला । श्मशान में लड़का अकेला ही रात भर रहा। रात को दो भूत आये । एक सम्यग् - दृष्टि था, एक मिथ्या-दृष्टि | मिथ्या दृष्टि भूत ने बालक को कष्ट देना चाहा, पर, बालक के मुँह से निकला - 'नमो बुद्धस्स भूत भयभीत हो कर दूर हट गया। दोनों भूतों के मन में बालक के प्रति प्यार उत्पन्न हुआ । राजा बिम्बिसार के राजप्रासाद से वे स्वर्ण थाल और पकवान लाये । बालक के माता-पिता का ही रूप बना कर उन्होंने उसे भोजन कराया । स्वर्ण थाल को उन्होंने वहीं बैलगाड़ी में छोड़ दिया । प्रातः राजा के आरक्षक स्वर्ण थाल के चोर की खोज में निकले । लड़के को पकड़ कर राजा के पास लाये और कहा - " राजन् ! यही स्वर्ण थाल का चोर है ।" लड़के ने सहज रूप से जो उसे अवगत था, कहा । लड़के के मूल माता-पिता भी वहाँ पहुँच गये । वस्तुस्थिति सबकी समझ में आ गई । १. समवायांग सूत्र, समवाय ३४ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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