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४२० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड:१ सच्चक निगण्ठपुत्र ने जो विस्तृत चर्चाएं बुद्ध के साथ की हैं, उन चर्चाओं से यह जरा भी प्रतीत नहीं होता कि वह कोई निगंठ-मान्यता का अनुयायी रहा हो। कायिक और मानसिक भावना की चर्चा में भी उसने कायिक भावना का सम्बन्ध गोशालक से जोड़ा है। प्रस्तुत महासच्चक सुत्त में तो सच्चक ने महावीर की कुत्सा ही अभिव्यक्त की है। जैनपरम्परा से सम्बन्धित यह कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता, तो अवश्य कहीं आगम-साहित्य या कथा-साहित्य में उल्लिखित होता। इस स्थिति में बुद्धघोष की धारणा किंवदन्ती से अधिक महत्त्व नहीं रखती। ३०. अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य-वास
एक बार भगवान बुद्ध कौशाम्बी के घोषिताराम में विहार कर रहे थे। उस समय पाँच सौ परिव्राजकों की महापरिषद् के साथ सन्दक परिव्राजक प्लक्ष गुहा में वास करता था। आयुष्मान् आनन्द सायंकालीन ध्यान से निवृत्त हो भिक्षु-परिवार के साथ देवकट सोन्म को देखने के लिए गये । सन्दक परिव्राजक अपनी परिषद् से घिरा बैठा था और चारों ओर नाना प्रकार की कथाओं से कोलाहल हो रहा था। सन्दक परिव्राजक ने दूर ही से आयुष्मान् आनन्द को अपनी ओर आते हुए देखा । अपनी परिषद् को सावधान करते हुए कहा-"आप सब चुप हो जायें। शब्द न हो । श्रमण गौतम का श्रावक श्रमण आनन्द आ रहा है। श्रमण गौतम के कौशाम्बी में जितने श्रावक वास करते हैं, उनमें श्रमण आनन्द भी एक है। ये श्रमण निःशब्द-प्रेमी व अल्प शब्द-प्रशंसक हैं। परिषद् को शान्त देख कर सम्भवतः ये इधर भी आयें।"
सभी परिव्राजक शान्त हो गये । आयुष्मान् आनन्द सन्दक परिव्राजक के पास आये। सन्दक ने उनका स्वागत किया और कहा-"बहुत समय बाद आप इधर आये हैं। यह आसन बिछा है, आप बैठें।"
आयुष्मान् आनन्द आसन पर बैठ गये । सन्दक परिव्राजक भी नीचा आसन लेकर बैठ गया। वार्ता का आरम्भ करते हुए आनन्द ने पूछा-"सन्दक ! किस कथा में बैठे थे? क्या वह कथा अधूरी ही रह गई ?"
सन्दक परिव्राजक ने उस प्रसंग को बीच ही में काटते हुए कहा--"इन कथाओं को आप यहीं छोड़ दीजिये। आपके लिए इन कथाओं का श्रवण अन्यत्र भी दुर्लभ नहीं होगा। अच्छा हो, आप ही अपनी आचार्यक विषयक कथाएं कहें।"
आयुष्मान् आनन्द ने कहना आरम्भ किया-"सन्दक ! ज्ञाता, द्रष्टा, सम्यक् सम्बुद्ध भगवान ने चार अब्रह्मचर्य-वास और चार अनाश्वासिक-ब्रह्मचर्य-वास बतलाये हैं, जिनमें विज्ञ पुरुष ब्रह्मचर्य-वास स्वीकार नहीं करता और स्वीकार करने पर वह न्याय तथा कुशल धर्म को नहीं पाता।"
प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अब्रह्मचर्य-वास का विस्तृत विवेचन करते हुए आयुष्मान् आनन्द ने क्रमशः अजित केसकम्बली, पूरण कस्सप, मक्खलि गोशाल और पकुध कच्चायन के मतवादों का उल्लेख किया और उन्हें ही उक्त अब्रह्मचर्य-वासों में गिनाया। चार आनाश्वासिक बह्मचर्य-वास का वर्णन करते हुए प्रथम अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य-वास के अन्तर्गत आनन्द ने निगण्ठ नातपुत्त के मतवाद का उल्लेख किया। उन्होंने कहा-"यहाँ एक शास्ता ऐसा है, जो सर्वज्ञ, सर्वदशी, अशेष ज्ञान-दर्शन-युक्त होने का अधिकारपूर्वक कथन करता है। उसके
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