SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिहास और परम्परा] परिनिर्वाण यथासमय भगवान् पात्र-चीवर ले चुन्द कर्मार-पुत्र के घर आये और भोजन किया। भोजन करते भगवान् ने चुन्द को कहा-"अन्य भिक्षुओं को मत दो यह सूकर. मद्दव । ये इसे नहीं पचा सकेंगे।" भोजन के उपरान्त भगवान् को असीम वेदना हुई। बिरेचन पर विरेचन होने लगा और वह भी रक्तमय। उग्र व्याधि में भी भगवान् पावा से कुशीनारा की ओर चल पड़े । क्लान्त हो रास्ते में बैठे। आनन्द से कहा-"निकट की नदी से पानी लाओ। मुझे बहुत प्यास लगी है।" आनन्द ने कहा- भगवन् ! अभी-अभी ५०० गाड़े इस निकट की नदी से निकले हैं। यह छोटी नदी है। सारा पानी मट-मैला हो रहा है। कुछ ही आगे ककुत्था नदी है । वह स्वच्छ और रमणीय है। वहाँ पहुँच कर भगवान् पानी पीयें।" भगवान् ने दूसरी बार और तीसरी बार वैसे ही कहा, तो आनन्द उठ कर गए । देखा, पानी अत्यन्त स्वच्छ और शान्त है। आनन्द भगवान् के इस ऋद्धि-बल से आनन्द-विभोर हुए। पात्र में पानी ला भगवान् को पिलाया। आलार-कालाम के शिष्य से भेंट भगवान् के वहाँ बैठे आलार-कालाम का शिष्य पुक्कुस मल्ल-पुत्र मार्ग चलते आया। एक ओर बैठ कर बोला-“भन्ते ! प्रव्रजित लोग शान्ततर विहार से विहरते हैं। एक बार आलार-कालाम मार्ग के समीपस्थ वृक्ष की छाया में विहार करते थे। ५०० गाड़ियाँ उनके पीछे से गई। कुछ देर पश्चात् उसी सार्थ का एक आदमी आया। उसने आलार-कालाम से पूछा "भन्ते ! गाड़ियों को जाते देखा ?" "नहीं आवुस !" "भन्ते ! शब्द सुना ?" "नहीं आवुस !" "भन्ते ! सो गये थे?" "नहीं आवुस।" "भन्ते ! आपकी संघाटी पर गर्द पड़ी है ?" "हाँ, आवुस ।" तब उस पुरुष को हुआ-आश्चर्य है ! अद्भुत है ! प्रवजित लोग आत्मस्थ होकर कितने शान्त विहार से विहरते हैं !" भगवान ने कहा-"पुक्कुस ! एक बार मैं आतुमा के भूसागर में विहार करता था। उस समय जोरों से पानी बरसा । बिजली कड़की। उसके गिरने से दो किसान और चार बैल मरे। उस समय एक आदमी मेरे पास आया और बोला-"भन्ते ! मेघ बरसा, बिजली कड़की, किसान और बैल मरे। आपको मालूम पड़ा, भन्ते ?" "नहीं, आवुस !" "आप कहां थे?" "यहीं था।" "बिजली कड़कने का शब्द सुना, भन्ते?" ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy