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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
भूकम्प
बुद्ध ने चापाल-चैत्य में उस समय स्मृति-संप्रजन्य के साथ आयु-संस्कार को छोड़ दिया। उस समय भयंकर भूकम्प हुआ। देव-दुन्दुभियां बजीं। आनन्द भगवान् के पास आये और बोले- आश्चर्य भन्ते ! अद्भुत भन्ते ! इस महान् भूचाल का क्या हेतु है ? क्या प्रत्यय है ?" भगवान् ने कहा-"भूकम्प के आठ हेतु होते हैं। उनमें से एक हेतु तथागत के द्वारा जीवन-शक्ति का छोड़ा जाना है। उसी जीवन-शक्ति का विसर्जन मैंने अभी-अभी चापाल-चैत्य में किया है। यही कारण है, भूकम्प आया, देव-दुन्दुभियां बजीं।"
आनन्द को यह सब सुनते ही समझ आई; उसने कहा-'भन्ते ! बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय आप कल्प-भर ठहरें।" बुद्ध ने कहा-"अब मत तथागत से प्रार्थना करो। अब प्रार्थना करने का समय नहीं रहा।" आनन्द ने क्रमश: तीन बार अपनी प्रार्थना को दुहराया। बुद्ध ने कहा-"क्यों तथागत को विवश करते हो? रहने दो इस बात को। आनन्द ! मैं कल्प भर नहीं ठहरता; इसमें तुम्हारा ही दोष है । मैंने अनेक बार तथागत की क्षमता का उल्लेख तुम्हारे सामने किया, पर, तुम मूक ही बने रहे।"
भगवान वहां से उठ कर महावन-कूटागार शाला में आये । वहां आनन्द को आदेश दिया-"वैशाली के पास जितने भिक्षु विहार करते हैं, उन्हें उपस्थान-शाला में एकत्रित करो।" भिक्षु एकत्रित हुए । बुद्ध ने कहा- "हन्त भिक्षुओ! तुम्हें कहता हूँ, संस्कार (कृतवस्तु) नाशमान हैं। प्रमाद-रहित हो, आदेय का सम्पादन करो। अचिर-काल में ही तथागत का परिनिर्वाण होगा, आज से तीन मास पश्चात् ।"
अन्तिम यात्रा
भगवान् वैशाली से कुशीनारा की ओर चले। भोगनगर के आनन्द-चैत्य में बुद्ध ने कहा-"भिक्षुओ! कोई भिक्षु यह कहे-'आवुसो ! मैंने इसे भगवान् के मुख से सुना; यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का उपदेश है।' भिक्षुओ ! उस कथन का पहले न अभिनन्दन करना, न निन्दा करना । उस कथन की सूत्र और विनयं में गवेषणा करना । वहाँ वह न हो, तो समझना यह इस भिक्षु का ही दुगहीत है। सूत्र और विनय में वह कथन मिले, तो समझना अवश्य यह तथागत का वचन हैं।"
भगवान् विहार करते क्रमशः पावा पहुँचे। चुन्द कर्मार-पुत्र के आम्र-वन में ठहरे। चुन्द कर्मार-पुत्र ने भिक्षु-संघ-सहित बुद्ध को अपने यहां भोजन के लिए आमंत्रित किया। पहली रात को भोजन की विशेष तैयारियां कीं। बहुत सारा 'सूकर-मद्दव'' तैयार किया।
१. बुद्धघोष ने (उदान-अट्ठकथा, ८।५) 'सूकर-मद्दव' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा
है-"ना-तितरूणस्स नातिजिण्णस्स एक जेट्टकसूकरस्स पवत्तमंसं अर्थात् 'न अति तरुण, न अति वृद्ध एक (वर्ष) ज्येष्ठ सूअर का बना मांस ।' "सूकर-मद्दव' के अन्य अमांसपरक अर्थ भी किये जाते हैं, पर मांसपरक अर्थ में भी कोई विरोधाभास नहीं लगता । अन्य किसी प्रसंग पर उग्ग गृहपति के अनुरोध पर बुद्ध ने सूकर का मांस ग्रहण किया, ऐसा अगुत्तर निकाय (पञ्चक निपात) में उल्लेख है ।
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