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इतिहास और परम्परा
परिनिर्वाण
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अन्तिम वर्षावास
बुद्ध राजगह से वैशाली आए। वहाँ कुछ दिन रहे। वर्षावास के लिए समीपस्य वेलुवग्राम (वेणु-ग्राम) में आये। अन्य भिक्षुओं को कहा-“तुम वैशाली के चारों ओर मित्र, परिचित आदि देखकर वर्षावास करो।" यह बुद्ध का अन्तिम वर्षावास था।
वर्षावास में मरणान्तक रोग उत्पन्न हुआ। बुद्ध ने सोचा, मेरे लिए यह उचित नहीं कि मैं उपस्थाकों और भिक्षु-संघ को बिना जतलाये ही परिनिर्वाण प्राप्त करूं। उन्होंने जीवनसंस्कार को दृढ़तापूर्वक धारण किया। रोग शान्त हो गया। शास्ता को निरोग देख कर आनन्द ने प्रसन्नता व्यक्त की और कहा-"भन्ते ! आपकी अस्वस्थता से मेरा शरीर शून्य हो गया था । मुझे दिशाएँ भी नहीं दिख रही थीं। मुझे धर्म का भी भान नहीं होता था।" बुद्ध ने कहा- "आनन्द ! मैं जीर्ण, वृद्ध, महल्लक, अध्वगत, वयःप्राप्त हूँ। अस्सी वर्ष की मेरी अवस्था है। जैसे पुराने शकट को बाँध-बूंघ कर चलाना पड़ता है, वैसे ही मैं अपने-आपको चला रहा हूँ। मैं अब अधिक दिन कैसे चलूंगा ? इसलिए आनन्द ! आत्मदीप, आत्मशरण, अनन्यशरण ; धर्मदीप, धर्मशरण, होकर विहार करो।"१
आमन्द की भूल
एक दिन भगवान् चापाल-चैत्य में विश्राम कर रहे थे। आयुष्मान् आनन्द उनके पास बैठे थे। आनन्द से भगवान् ने कहा-'आनन्द ! मैंने चार ऋद्धिपाद साधे हैं । यदि चाई तो मैं कल्प-भर ठहर सकता हैं।" इतने स्थल संकेत पर भी आनन्द न समझ सके। उन्होंने प्रार्थना नहीं की-"भगवन् ! बहुत लोगों के हित के लिए, बहुत लोगों के सुख के लिए आप कल्प-भर ठहरें।" दूसरी बार और तीसरी बार भी भगवान् ने ऐसा कहा, पर, आनन्द नहीं समझे। मार ने उनके मन को प्रभावित कर रखा था। अन्त में भगवान ने बात को तोड़ते हुए कहा-"जाओ, आनन्द ! जिसका तुम काल समझते हो!"
मार द्वारा निवेदन
आनन्द के पृथक होते ही पापी मार भगवान् के पास आया और बोला-"भन्ते ! आप यह बात कह चुके हैं--'मैं तब तक परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं करूंगा, जब तक मेरे भिक्ष, भिक्षुणियां, उपासक, उपासिकाएं आदि सम्यक् प्रकार से धर्मारूढ़, धर्म-कथिक और आक्षेपनिवारक नहीं हो जायेंगे तथा यह ब्रह्मचर्य (बुद्ध-धर्म) सम्यक् प्रकार से ऋद्ध, स्फीत व बहुजन-गृहीत नहीं हो जायेगा।' भन्ते ! अब यह सब हो चुका है । आप शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करें।" भगवान् ने उत्तर दिया-"पापी ! निश्चिन्त हो। आज से तीन माह पश्चात् मैं निर्वाण प्राप्त करूंगा।"
१. अत्तदीपा विहरथ, अत्तसरणा अनअसरणा, धम्मदीवा, धम्मसरणा, अननसरणा।
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