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________________ ३५६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :१ प्रस्तुत संकलन में इतनी जागरूकता विशेषतः बरती गई है कि त्रिपिटकों में से कोई भी प्रसंग विलग न रह जाये । अट्ठकथाओं व इतर ग्रन्थों के प्रसंग भी यथासम्भव इस संकलन में ले लिये गये हैं। कहा जा सकता है, प्रस्तुत प्रकरण त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त विषयक प्रसंगों' का भरा-पूरा और प्रामाणिक आकलन बन गया है, जो सम्बन्धित विषय के पाठकों व गवेषकों के लिए महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हो सकता है। वर्गीकरण व भाषा प्रसंग मूल रूप में प्रकीर्ण हैं। प्रस्तुत आकलन में उन्हें तीन विभागों में बांटा गया है१. चर्चा-प्रसंग, २. घटना-प्रसंग और ३. उल्लेख-प्रसंग । इन प्रसंगों की संख्या क्रमशः १३,८ और ३० हैं । समुल्लेखों पर यथास्थान समीक्षात्मक टिप्पण भी दे दिये गये हैं। भाषा की दृष्टि से यह ध्यान तो रखा ही गया है कि अधिक-से-अधिक मूलानुसारी रहे; पर, पुनरुक्ति व विस्तार के भय से बहुत स्थानों पर भावमात्र ले लिया गया है। कुछ एक प्रसंग विविध विषयों से सम्बन्धित थे; उनसे मुख्यतया यहाँ इतना ही अंश लिया गया है, जो निगण्ठ नातपुत्त या निर्ग्रन्थ-धर्म से सम्बन्धित था। समी प्रसंगों के मूल पालि पाठ परिशिष्ट में दिये गये हैं।' 1. चर्चा-प्रसंग 1. सिंह सेनापति एक बार भगवान् वैशाली के महावन की कूटागारशाला में विहार कर रहे थे। उस समय प्रतिष्ठित लिच्छवी संस्थागार में एकत्र हो, बुद्ध धर्म और संघ का गुणोत्कीर्तन कर रहे थे। निगंठों का श्रावक सिंह सेनापति भी वहाँ बैठा था। गुणोत्कीर्तन से वह बहुत प्रभावित हआ। उसने सोचा-"निःसंशय भगवान् बुद्ध अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध होंगे। इसीलिए बहुत सारे प्रतिष्ठित लिच्छवी उनका यशोगान कर रहे हैं। क्यों न मैं भी उन भगवान के दर्शन करूँ?" __ सिंह सेनापति निगंठ नाटपुत्त के पास आया और उन्हें अपने संकल्प से सूचित किया। निगंठ नाटपुत्त ने कहा -"सिंह ! क्रियावादी होते हुए भी तू अक्रियावादी श्रमण गौतम के दर्शनार्थ जाएगा ? वह तो श्रावकों को अक्रियावाद का ही उपदेश करता है।" सेनापति की भावना शान्त हो गई। दूसरी बार फिर एक दिन बहुत सारे प्रतिष्ठित लिच्छवी संस्थागार में एकत्रित हुए। सिंह सेनापति भी वहाँ उपस्थित था। बुद्ध, धर्म और संघ का गुणोत्कीर्तन सुन, वह पुन: प्रभावित हुआ। उसके मन में बुद्ध के दर्शनों की पुनः उत्कण्ठा जागृत हुई। निगंठ नाटपत्त के पास आया और अपनी भावना व्यक्त की। निगंठ नाट पुत्त ने पुनः उसी बात को दुहराया । सेनापति ने बुद्ध के पास जाने का विचार त्याग दिया। तीसरी बार संस्थागार में पुन: वही प्रसंग उपस्थित हुआ। इस बार सिंह सेनापति ने मन-ही-मन विमर्षण १. देखिए, परिशिष्ट.१ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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