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________________ २९ इतिहास और परम्परा] गोशालक पाकर भगवान् महावीर की प्रभावशाली स्तुति की। शकडालपुत्र बोला- "हे गोशालक ! तुमने मेरे धर्माचार्य की स्तुति की है, इसलिए मैं तुम्हें अपनी दुकानें रहने के लिए और शय्यासंस्तारक आदि ग्रहण करने के लिए आमंत्रित करता हूँ।" गोशालक दुकानों में रहा। शकडालपुत्र को फिर से अपने सम्प्रदाय में लाने के लिए भगीरथ प्रयत्न किया, पर, उसमें असफल होकर वहाँ से अन्यत्र विहार कर दिया।' अन्य प्रसंग . गोशालक सुदीर्घ अवधि तक भगवान् महावीर के साथ रहा। भगवती आदि आगमों में जहाँ उसका सुविस्तृत वर्णन है, आगमोत्तर ग्रन्थों में भी उस सहवास के अनेक पूरक प्रसंग मिलते हैं। भले ही उन प्रसंगों का महत्व आगमोक्त प्रसंगों जितना न हो, तथापि वे रोचकता ज्ञान-वृद्धि और शोध-सामग्री की दृष्टि से पठनीय और मननीय हैं। एक बार भगवान् महावीर ने कोल्लाग सन्निवेश से सुवर्णखल की ओर विहार किया। गोशालक भी भगवान् के साथ था। मार्ग में कुछ ग्रामीण खीर पका रहे थे । खीर को देख कर गोशालक का मन ललचाया। उसने भगवान महावीर से कहा- "हम कुछ देर यहीं ठहरें। खीर पक कर उतर जाएगी। हम भी खीर से अवश्य लाभान्वित होंगे।" भगवान महावीर ने उत्तर दिया-"इस खीर से हम तो क्या , इसे पकाने वाले भी लाभान्वित नहीं होंगे। यह तो बिना पके ही नष्ट हो जाने वाली है।" भगवान् आगे चले। गोशालक वहीं ठहरा ; यह जानने के लिए कि क्या होता है ? गोशालक ने खीर पकाने वालों को भी इस संभाव्य अनिष्ट से सावधान किया। ग्रामीण पूरे सावधान हो गए ; यह मिट्टी का बर्तन कहीं लुढ़क न जाए, फट न जाए। फिर भी वही हुआ, जो भगवान् महावीर ने कहा था। बर्तन में चावल और दूध मात्रा से अधिक थे। चावल फूले कि बर्तन फटा। सारी खीर मिट्टी और राख में बहने लगी। गोशालक इस घटना से नियतिवाद की ओर झुका । ___ एक बार भगवान महावीर ब्राह्मण गांव में आए। गोशालक भी साथ था। उस गाँव के दो भाग थे : १. नन्दपाटक और २. उपनन्दपाटक । नन्द और उपनन्द दो भाई थे। दोनों के आश्रित भाग उनके अपने-अपने नाम से पुकारे जाते थे। भगवान महावीर भिक्षाचरी के ध्येय से नन्दपाटक में नन्द के घर आये । नन्द ने भगवान् को दधिमिश्रित तण्डुल बहारए। गोशालक उपनन्दपाटक में उपन द के घर भिक्षा के लिये गया। दासी ने बासी भात गोशालक को देने के लिए कड़छी में उठाया। गोशालक ने इसे अपना अपमान समझा और वह, दासी के साथ लड़ने-झगड़ने लगा। पास बैठा उपनन्द यह सब देख-सुन रहा था। गोशालक की हरकत पर उसे भी क्रोध आया। उसने दासी से कहा-यह बासी भात लेता है तो दे, नहीं तो इसके सिर पर डाल । दासी ने वैसा ही कर डाला। गोशालक आग बबूला हो उठा। उसने श्राप दिया-"मेरे गुरु के तप-तेज का कोई प्रभाव हो, तो तुम्हारा यह प्रसाद जल कर भस्म हो जाए।" व्यन्तेर देवों ने महावीर की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए वह महल भस्म कर १. उवासगदसाओ, अ० ७ के आधार पर। २. आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पूर्वभाग, गा० ४७४ पत्र संख्या २७७-१; __ आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग, पत्र २८३ । ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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