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इतिहास और परपरा] अनुयायी राजा
३१६ त्रिपिटकों में
बौद्ध मान्यता के अनुसार उदयन प्रारम्भ में बुद्ध और उनके भिक्षु-संघ का विरोधी था। एक बार घोषक, कुक्कुट और पावारिय; इन तीन श्रेष्ठिओं ने बुद्ध को कौशाम्बी में आमंत्रित किया। बुद्ध का उपदेश सुनने के लिए श्यामावती रानी की परिचारिका खुज्जुत्तरा जाया करती थी। बुद्ध के उपदेशों का वह अनुवचन भी करने लगी। उसके सम्पर्क से रानी श्यामावती भी बुद्ध के प्रति श्रद्धाशील हो गई। जब बुद्ध राजप्रासाद के निकट से होकर जाते, तो गवाक्षों से वह उन्हें प्रणाम करती। उसकी सौत मागन्दिया रानी ने यह सब उदयन को बता दिया। उदयन बुद्ध और भिक्षु-संघ का विरोधी था। वह श्यामावती से अप्रसन्न हो गया। उसने उसके वध का भी प्रयत्न किया। दैवी घटना से वह बच गई। राजा का क्रोध शान्त हुआ । उसने श्यामावती के अनुरोध पर बौद्ध भिक्षुओं को राजप्रासाद में भोजन कराने की भी अनुज्ञा दी। भोजन के उपरान्त राजप्रासाद की महिलाएँ भिक्षुओं को वस्त्र-दान करतीं। उदयन ने इसका भी विरोध किया। आनन्द के समझाने पर उसने वस्त्र-दान की उपयोगिता मानी।।
उदयन का बुद्ध से कभी साक्षात् हुआ, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। संयुत्त निकाय के अनुसार पिण्डोल भारद्वाज से उसने कौशाम्बी के घोषिताराम में मेंट की । 'तरुण लोग कैसे भिक्षु हो जाते हैं ?' इस विषय पर चर्चा की और अन्त में कहा-"मैं भगवान् की शरण जाता हूँ, धर्म की शरण जाता हूँ और भिक्षु-संघ की शरण जाता हूँ। भारद्वाज ! आज से आजन्म मुझे शरणागत उपासक स्वीकार करें।"
समीक्षा
उदयन-सम्बन्धी सभी जैन समुल्लेख श्लाघापरक ही हैं, जब कि प्रारम्भ के सभी बौद्ध समुल्लेख अश्लाघापरक हैं। एक बार उसने पिंडोल भारद्वाज पर लाल चीटियां भी छुड़वाईं, ऐसा भी वर्णन मिलता है। बुद्ध ने भी उस घटना-प्रसंग को सुनकर कहा-"यह उदयन इसी जीवन में नहीं, पिछले जीवन में भी भिक्षुओं के लिए कष्ट कारक रहा है।" इस स्थिति में यह तो निश्चित रूप से कहा ही जा सकता है कि उदयन पहले महावीर का अनुयायी रहा है। इस तथ्य के समर्थन में केवल इतना ही आधार नहीं है कि जैन परम्परा में इसका वर्णन श्लाघापरक है और बौद्ध परम्परा में अश्लाघापरक ; परन्तु, उसके जनक शतानीक, उसकी माता मृगावती तथा बूआ जयन्ती का जैन होना भी उदयन के जैन होने को पुष्ट करता है।
बुद्ध के प्रति उदयन के मन में निरादर का भाव बना रहा, उसका एक निमित्त मागन्दिका रानी भी थी। वह अपनी कुमारावस्था से ही बुद्ध के प्रति कुपित थी। उसका १. ये तीनों श्रेष्ठी पहले इतर भिक्षुओ को मानते थे। फिर बौद्ध बने । अपने-अपने नाम
से आराम बनाये । विशेष विवरण देखें, धम्मपद-अट्ठकथा, २.१ । २. धम्मपद अट्ठकथा, २-१ के आधार से ; तथा डॉ० नलिनाक्षदत्त, उत्तर प्रदेश में बौद्ध
धर्म का विकास, पृ० ११४ । ३. ३४.३-३-४। ४. घटना का विस्तार एवं पूर्व-जन्म सम्बन्धी वृत्तान्त देखें, जातक अट्ठकथा, मातंग
जातक सं०४६७।
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