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________________ EE इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय इस प्रकार अपने १८ (अथवा १६) वर्ष के राज्य-काल में नन्द-वंश को सुस्थापना इस प्रकार मौर्य सम्वत् का प्रारम्भ ई० पू० ३२२ में (चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक-काल) मानने पर खारवेल का राज्याभिषेक-काल ई०पू० १७० में आता है और इसके राज्य-काल का पांचवां वर्ष ई० पू० १६६ में आता है। इससे ३०० वर्ष पूर्व अर्थात् ई०पू० ४६६ में नन्द राजा ने कलिंग पर आक्रमण किया था, यह प्रमाणित होता है । इसी नन्द राजा का उल्लेख हाथीगुम्फा शिलालेख की १२वीं पंक्ति में भी किया गया है। वहाँ बताया गया है कि अपने राज्य के बारहवें वर्ष में खारवेल ने उत्तरापथ के राजाओं में आतंक फैला दिया, मगध के लोकों में भय उत्पन्न कर दिया, अपने हाथियों को 'सुओ गरिगेय' में प्रविष्ट करवाया, मगधराज बृहस्पति मित्र को निचा दिखाया, नन्द राजा के द्वारा अपहृत जैन मूर्ति को कलिंग में वापिस ले आया तथा अंग व मगध से विजय के प्रतीक रूप कुछ रत्न प्राप्त किये (द्रष्टव्य, J. B.O. R.S., vol. IV, p.401; vol. XIII, p. 732)। इन पंक्तियों के आधार पर खारवेल का ऊपर किया गया काल-निर्णय भी पुष्ट हो जाता है, क्योंकि इनमें उल्लिखित बृहस्पति मित्र की पहचान शुंगवंशीय राजा पुष्यमित्र के साथ की जाती है, जिसका समय पौराणिक काल-गणना के आधार पर ई० पू० १८५-१५० स्वीकार किया गया है और खारवेल का १२वा वर्ष ई० पू० १५६ में आता है, जो कि पुष्यमित्र के काल के साथ समकालीन ठहरता है । द्रष्टव्य, Chiman Lal Jechand Shah, Jainism in North India, (Gujarati Translation), pp. 159-62; Dr. V. A. Smith, Journal of Royal Asiatic Society, 1918, p. 545; Dr. K. P. Jayswal, op. cit., vol. III, p. 447; Dr. Shanti Lal Shah, op. cit., pp. 53-55.)। __यह नन्द राजा नन्दीवर्धन ही था—हमारा यह मन्तव्य अनेक इतिहासकारों द्वारा स्वीकार किया गया है । डॉ० वी० ए० स्मिथ ने लिखा है : “(हाथीगुम्फा शिलालेख में) उल्लिखित नन्द-राजा पुराणों में बताया गया शिशुनाग वंश का हवा राजा नन्दीवर्धन ही है, ऐसा लगता है। यह आवश्यक लगता है कि इसे और इसके उत्तराधिकारी १०वें राजा महानन्दी को नन्दों में ही गिनना चाहिए, जो नन्द १०वें राजा तथा चन्द्रगुप्त के बीच हुए नव नन्दों से पृथक् थे । 'अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, के तृतीय संस्करण में मैंने नन्दीवर्धन का राज्यारोहण समय ई० पू० ४१८ माना था, किन्तु अब वह समय ई० पू० ४७० या उससे भी पूर्व का होना चाहिए।" (Journal of Royal Asiatic Society, 1918, p. 547) i Cambridge History of India के प्रमुख सम्पादन ई० जे० रेपसन ने निष्कर्ष रूप से लिखा है : "(हाथीगुम्फा) शिलालेख की छट्ठी पंक्ति में आये 'ति-वस-सत' का अर्थ यदि '३०० वर्ष' होता है, तो यह निश्चित है कि ई० पू० पाँचवीं शताब्दी के मध्य में कलिंग नन्द राजा के आधिपत्य में था और वह नन्द राजा मोर्यों के सुप्रसिद्ध पूर्ववर्ती राजाओं में से ही था, यह स्वाभाविक है।" (vol, I. p., 504) Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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