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इतिहास और परम्परा]
गोशालक
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ने उन्हें घेर लिया और तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगे। महावीर मौन रहे। उन्हें देख कर गोशालक भी मौन रहा। पहरेदार उन्हें गुप्तचर समझ सताने लगे। उसी गांव में उत्पल नैमित्तिक की दो बहिनें सोना और जयन्ती रहती थीं। ये पहले श्रमण-धर्म में दीक्षित रह चुकी थीं। असमर्थता के कारण अब वे परिवाजिकाएँ बन चली थीं। वे पहरेदारों के पास आईं और समझाबुझा कर उन्हें शान्त किया। स्थिति से अवगत होकर पररेदारौं ने भगवान् महावीर से क्षमायाचना की।'
एक बार भगवान महावीर कयंगला नगरी में आये। उद्यान के देव-मन्दिर में ठहरे। रात को देवालय के एक कोने में ध्यानस्थ खड़े हो गए। गोशालक भी मन्दिर में एक ओर बैठ गया । माघ का महीना था । आकाश बादलों से घिरा था। नन्ही-नन्ही बून्हें गिर रही थीं। ठण्डी हवा जोरों पर थी। उसी रात मन्दिर में एक धार्मिक उत्सव हो रहा था। गीत और वाद्य के साथ स्त्री-पुरुषों का सहनर्तन भी हो रहा था । शीत से पीड़ित गोशालक को यह सब अच्छा नहीं लगा। वह अपने आप ही बड़बड़ाने लगा-कैसा धर्म है ; स्त्री और पुरुष साथ-साथ नाच रहे हैं। गोशालक का यह सब कहना उपस्थित लोगों को अच्छा नहीं लगा। हाथ पकड़ कर उसे देवालय से बाहर कर दिया।
गोशालक बाहर बैठा शीत से कांप रहा था। वह कहता था, कैसा कलियुग आया है, सच कहने वाला ही मारा जाता है । कुछ लोगों को फिर से दया आई। उसे देवालय के अन्दर बुला लिया। वह फिर उनके धर्म की निन्दा करने लगा। युवक उत्तेजित हुए। मारने के लिए दौड़े। वृद्धों ने उन्हें रोका और कहा-'हम लोग बाजे इतने जोर से बजाएं कि इसकी यह बड़बड़ाहट कानों में ही न पड़े।' इस तरह प्रातःकाल हुआ और भगवान् महावीर ने श्रावस्ती की ओर विहार किया।
कूपिय सन्निवेश से एक बार भगवान् महावीर ने वैशाली की ओर विहार किया। गोशालक भगवान् के साथ रहते-रहते उनकी कठोर चर्या से ऊब चुका था। उसने भगवान् महावीर से कहा-"अब मैं आपके साथ नहीं चलूंगा। आप मेरा जरा भी ध्यान नहीं रखते। स्थान-स्थान पर लोग मेरी तर्जना करते हैं। आप आँख मूंदकर खड़े रहते हैं। आपके साथ रहने से मुझे मिलता क्या है ; सिवाय कष्ट झेलने के और भूखों मरने के।'
महावीर वैशाली की ओर गये । गोशालक राजगृह आया। छह महीने महावीर से पृथक् रहा । गया था सुख पाने, पर, पाया केवल कष्ट-ही-कष्ट । कोई आदर नहीं करते;
आदर पूर्वक भिक्षा नहीं देते। कष्टों से घबरा कर पुनः वह भगवान् महावीर को खोजने , लगा। शालीशीर्ष गांव में भगवान् मिले । वह तब से पुनः उनके साथ हो लिया।३ .
दिगम्बर-परम्परा में
गोशालक-सम्बन्धी उक्त विवेचन श्वेताम्बर आगमों का है। दिगम्बर-परम्परा में
१. आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पूर्वभाग, गा० ४७७, पत्र सं० २७८-२,
२७६-१; आवश्यक चूणि, पूर्व भाग, पत्र २८६ । २. आवश्यक सूत्र नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पूर्वभाग, गा० ४७८, पत्र सं० २७६;
आवश्यक चूर्णि, पूर्वभाग, पत्र सं० २८७ । ३. आवश्यक चूणि, पूर्वभाग, पत्र सं० २६२ ।
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