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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : १
पास पहुँच, महामौद्गल्यायन को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे हुए निगण्ठ नातपुत्त के श्रावक वप्प को महामौद्गल्यायन ने यह कहा - " वप्प ! एक आदमी शरीर, वाणी तथा मन से संयत हो, वह अविद्या से विरक्त हो और विद्याला भी हो । वप्प ! क्या तुझे इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्व जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ?
"भन्ते ! मैं इसकी सम्भावना देखता हूँ कि आदमी ने पूर्व जन्म में पाप कर्म किया हो, किन्तु, उस पाप कर्म का फल न भुगता हो, तो ऐसी हालत में उस पुरुष को पूर्व जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ।'
आयुष्मान् मौद्गल्यायन के साथ निगण्ठ श्रावक वप्प शाक्य की यह बातचीत हुई । भगवान् उस समय संध्या कालीन ध्यान से उठ, जहाँ उपस्थानशाला थी, वहाँ पहुँचे । पहुँच कर बिछे आसन पर बैठे । बैठकर भगवान् ने आयुष्मान् मौद्गल्यायन से पूछा - "मौद्गल्यायन ! इस समय बैठे क्या बातचीत कर रहे थे ? इस समय क्या बातचीत चालू थी ?" "भन्ते ! मैंने निगण्ठ श्रावक वप्प शाक्य को यह कहा - 'वप्प ! एक आदमी शरीर, वाणी तथा मन से संयत हो, वह अविद्या से विरक्त हो और विद्याला भी हो । वप्प ! क्या तुझे इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्व जन्म के आस्रवों की प्राप्ति हो ?" भन्ते ! ऐसा कहने पर निगण्ठ श्रावक वप्प शाक्य ने मुझे ऐसा कहा - 'भन्ते ! मैं इसकी सम्भावना देखता हूँ कि आदमी ने पूर्व जन्म में पाप कर्म किया हो, किन्तु, उस पाप कर्म का फल न भुगता हो, तो ऐसी हालत में उस पुरुष को पूर्व जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ।' भन्ते ! निगष्ठ श्रावक वप्प शाक्य के साथ मेरी यह बातचीत चल रही थी कि भगवान् आ पहुँचे ।"
भगवान् ने निगण्ठ श्रावक वप्प शाक्य से कहा - " वप्प ! जो बात तुझे मान्य हो, उसे मानना, जो बात तुझे स्वीकार करने योग्य न जंचे, उसे स्वीकर मत करना । यदि मेरी कोई बात समझ में न आये, तो मुझ से ही उसका अर्थ पूछ लेना कि भन्ते ! इसका क्या अर्थ है ? अब हम दोनों की बातचीत हो ।"
"भन्ते ! भगवान् की जो बात मुझे मान्य होगी, उसे मानूंगा, जो बात स्वीकार करने योग्य न जँचेगी, उसे स्वीकार नहीं करूँगा । यदि कोई बात मेरी समझ में न आयेगी तो मैं भगवान् से ही उसका अर्थ पूछ लूंगा कि भन्ते ! इसका क्या अर्थ है ? हम दोनों की बातचीत हो ।"
"वप्प ! तो क्या मानते हो शारीरिक क्रियाओं के परिणाम स्वरूप जो दुःखद आस्रव उत्पन्न होते हैं, शारीरिक क्रियाओं से विरत रहने से दुःखद आस्रव उत्पन्न नहीं होते ? वह नया कर्म नहीं करता । पुराने कर्म को भुगत-भुगत कर क्षीण कर देता है - यह क्षीण करने वाली क्रिया सांदृष्टिक निर्जरा ( क्षयी) है, अकालिक है, इसके बारे में कहा जा सकता है, आओ और स्वयं देख लो' (निर्वाण की ओर) ले जाने वाली है, प्रत्येक विज्ञ पुरुष द्वारा जानी जा सकती है । वप्प ! क्या तुझें इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्वजन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ?”
" भन्ते ! नहीं ।"
"वप्प ! तो क्या मानते हो, वाणी की क्रियाओं के परिणाम स्वरूप जो दुःखद आस्रव उत्पन्न होते हैं; वाणी की क्रियाओं से विरत रहने से वे दुःखद आस्रव उत्पन्न नहीं होते ?
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