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________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्तं ३८७ वह नया कर्म नहीं करता। पुराने कर्म को भुगत-भुगत कर क्षीण कर देता है---यह क्षीण कर देने वाली क्रिया सांदृष्टिक निर्जरा (=क्षयी) है, अकालिक है, इसके बारे में कहा जा सकता है, 'आओ और स्वयं देख लो', (निर्वाण की ओर) ले जाने वाली है, प्रत्येक विज्ञ पुरुष द्वारा जानी जा सकती है। वप्प ! क्या तुझे इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्व-जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ?" "मन्ते ! नहीं।" "वप्प ! तो क्या मानते हो मन की क्रियाओं के परिणाम-स्वरूप जो दु:खद आस्रव उत्पन्न होते हैं ; मन की क्रियाओं से विरत रहने से वे दुःखद आस्रव उत्पन्न नहीं होते ? वह नया कम नहीं करता । पुराने कर्म को भुगत-भुगत कर क्षीण कर देता है—यह क्षीण कर देने वाली क्रिया सांदृष्टिक निर्जरा(--क्षयी ) है, अकालिक है, इसके बारे में कहा जा सकता है, 'आओ और स्वयं देख लो', (निर्वाण की ओर) ले जाने वाली है, प्रत्येक विज्ञ पुरुष द्वारा जानी जा सकती है। वप्प ! क्या तुझे इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्व-जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ?" "भन्ते ! नहीं।" "वप्प ! तो क्या मानते हो अविद्या के परिणाम-स्वरूप जो दुःखद आस्रव उत्पन्न होते हैं ; अविद्या के विनष्ट हो जाने से, विद्या के उत्पन्न हो जाने से दुःखद आस्रव उत्पन्न नहीं होते ? वह नया कर्म नहीं करता। पुराने कर्म को भुगत-भुगत कर क्षीण कर देता हैयह क्षीण करने वाली क्रिया सांदृष्टिक निर्जरा (-क्षयी) है, अकालिक है, इसके बारे में कहा जा सकता है, आओ और स्वयं देख लो', (निर्वाण की ओर) ले जाने वाली है, प्रत्येक विज्ञ पुरुष द्वारा जानी जा सकती है । वप्प ! क्या तुझे इसकी सम्भावना दिखाई देती है कि उस पुरुष को पूर्व-जन्म के दुःखद आस्रवों की प्राप्ति हो ?" "भन्ते ! नहीं।" "वप्प ! इस प्रकार जो भिक्षु सम्यक् रीति से विमुक्त हो गया है, उसे छह शान्तविहरण सिद्ध होते हैं । वह आँख से रूप देखने पर प्रसन्न न होता है, न अप्रसन्न होता है, वह उपेक्षायुक्त रहता है, स्मृतिमान् तथा ज्ञानी। कान से शब्द सुन कर.. नाक से गंध संघ कर ....जिह्वा से रस चख कर''काय से स्पष्टव्य का स्पर्श करके तथा मन से धर्म (मन के विषयों) को जान कर न प्रसन्न होता है, न अप्रसन्न होता है, वह उपेक्षायुक्त रहता है, स्मृतिमान् तथा ज्ञानी। वह जब तक पंचेन्द्रियों से अनुभव की जाने वाली सुख-दुःखमय वेदनाओं का अनुभव करता है, तब तक वह जानता है कि मैं पंचेन्द्रियों से अनुभव की जाने वाली सुख-दुःखमय वेदनाओं का अनुभव कर रहा हूँ। वह जब तक जीवनपर्यन्त मन से अनुभव की जाने वाली वेदनाओं का अनुभव करता है, तब तक यह जानता है कि मैं मन से अनुभव की जाने वाली वेदनाओं का अनुभव करता हूँ। वह यह भी जानता है कि शरीर के न रहने पर, जीवन की समाप्ति हो जाने पर सभी वेदनायें, सभी अच्छी-बुरी लगने वाली अनुभूतियाँ यहीं ठण्डी पड़ जायेंगी। वप्प ! जैसे खम्भे के होने से उसकी प्रतिच्छाया दिछाई देती है। एक आदमी कुदाल और टोकरी ले कर आये। वह उस खम्भे को जड़ से काट दे, जड़ से काट कर उसे खने, उसे खन कर जड़ें उखाड़ दे, यहाँ तक की खसकी जड़ पट्ट पतली-पतली जड़ें भी। फिर वह आदमी उस खम्भे के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें फाड़ डाले, फाड़ कर उसके छिलटे-छिलटे कर दे, छिलटे-छिलटे करके उसे हवा-धूप में सुखा डाले, हवा-धूप में सुखा ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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