SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ कर आग से जला डाले, आग से जला कर राख कर दे, राख करके या तो हवा में उड़ा दे अथवा नदी के शीघ्रगामी स्रोत में बहा दे । इस प्रकार वप्प ! जो उस खम्भे के होने से प्रतिच्छाया थी, उसकी जड़ जाती रहेगी। वह कटे वृक्ष की-सी हो जायेगी, वह लुप्त हो जायेगी, वह फिर भविष्य में प्रकट न होगी । इसी प्रकार वप्प ! जो भिक्षु सम्यक् रीति से विमुक्त चित्त हो गया है, उसे छः शान्त विहरण सिद्ध होते हैं । वह आँख से रूप देखने पर न प्रसन्न होता है, न अप्रसन्न होता है, वह उपेक्षा युक्त रहता है, स्मृतिमान् तथा ज्ञानी । कान से शब्द सुन कर नाक से गंध सूंघ कर जिह्वा से रस च कर काय से स्पृष्टव्य का स्पर्श करके तथा मन से धर्म ( मन के विषयों) को जान कर न प्रसन्न होता है, न अप्रसन्न होता है, वह उपेक्षा युक्त रहता है, स्मृतिमान् तथा ज्ञानी । वह जब तक पंचेन्द्रियों से अनुभव की जाने वाली सुख-दुःखमय वेदनाओं का अनुभव करता है, तब तक वह जानता है कि मैं पंचेन्द्रिय से अनुभव की जाने वाली सुख-दुःखमय वेदनाओं का अनुभव कर रहा हूँ । वह जब तक जीवनपर्यन्त मन से अनुभव की जाने वाली वेदनाओं का अनुभव करता है, तब तक वह जानता है कि मैं मन से अनुभव की जाने वाली वेदनाओं का अनुभव कर रहा हूँ । वह यह भी जानता है कि शरीर के न रहने पर जीवन की समाप्ति हो जाने पर, सभी वेदनाएँ, सभी अच्छी-बुरी लगने वाली अनुभूतियाँ यहीं ठण्डी पड़ जायेंगी ।" ऐसा कहने पर निठ श्रावक वप्प शाक्य ने भगवान् से यह कहा – “भन्ते ! जैसे कोई आदमी हो वह अपने धन की वृद्धि चाहता हो, वह बछेरों का पालन-पोषण करे । उसके धन की वृद्धि तो न हो, बल्कि वह क्लेश तथा हैरानी को ही प्राप्त हो। इसी प्रकार भन्ते ! मैं अभिवृद्धि की कामना से मूर्ख निगंठों की संगति की। मेरी अभिवृद्धि तो नहीं हुई, प्रत्युत मैं क्लेश और हैरानी का भागीदार हो गया । इसलिए भन्ते ! आज के बाद से निगंठों के प्रति मेरी जो भी श्रद्धा रही, उसे मैं या तो हवा में उड़ा देता हूँ अथवा तीव्रगामी नदी के वेग में बहा देता हूँ । भन्ते ! बहुत सुन्दर है भन्ते ! भगवान् मेरे प्राण रहने तक मुझे अपना उपासक स्वीकार करें।" · - सुत्तपिटके, अंगुत्तर निकाय पालि, चतुक्क निपात, महावग्गो, वप्पसृत्त, ४.२०-५ ( हिन्दी अनुवाद) पृ० १८८-१६२ के आधार से । समीक्षा वप्प शाक्य राजा था और स्वयं बुद्ध का चूलपिता ( पितृव्य ) था। हालांकि जैन परम्परा में इस सम्बन्ध से कोई उल्लेख नहीं है । उल्लेखनीय बात यह है कि बुद्ध ने जो कुछ वप्प को समझाया है, लगभग वह सव निर्ग्रन्थ धर्मगत ही है । आस्रव, निर्जरा आदि शब्दों के प्रयोग भी ज्यों के त्यों हुए हैं। श्रीमती राईस डेविड्स ने पंचवर्गीय वप्प और इस शाक्य वप्प के एक होने की सम्भावना व्यक्त की है; पर यह नितान्त असंभव है। दोनों वप्प कपिलवस्तु के थे, पर, १. अंगुत्तर निकाय अटुकथा, खण्ड २, पृ० ५५६ । R. It is quite in the range of possibility that the Vappa in Sutta 195 is one of those five friends in whom the Sakyamuni sought fellow helpers. - The Book of Gradual Sayings, vol. II, introduction, p. XIII. Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy