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इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
३८६ एक वशिष्ठ गोत्री ब्राह्मण था और दूसरा शाक्यवंशीय क्षत्रिय। पंचवर्गीय वप्प बुद्ध से बहुत पूर्व दीक्षित हो चुका था। बुद्ध के बोधि-लाम के पश्चात् अपने साथियों-सहित वह अर्हत-पद को प्राप्त हुआ।
बुद्ध के पितृव्य का निर्ग्रन्थ-धर्म में होना महावीर की ज्येष्ठता और निर्ग्रन्थ-धर्म की व्यापकता का भी परिचायक है । बुद्ध के विचारों में निर्ग्रन्थ-धर्म का यत्किचित् प्रभाव आने का भी यह एक निमित्त हो सकता है।
१३. सकुल उदायी
एक समय भगवान् बुद्ध राज गृह के कलन्दक निवाप में विहार करते थे। सकुल उदायी परिव्राजक भी अपनी महती परिषद् के साथ परिव्राजिकाराम में वास करता था। पूर्वाह्न समय भगवान् सकुल उदायी के पास गये। उदायी ने उनका हार्दिक स्वागत किया और बैठने के लिए आसन की प्रार्थना की। भगवान् एक ओर बैठ गये। उदायी भी एक नीचा आसन लेकर बैठ गया। भगवान् ने पूछा- "उदायी ! क्या कथा चल रही थी ?"
"भन्ते ! इस कथा-चर्चा को जाने दीजिए। जब मैं इस परिषद् के पास नहीं होता हूँ; यह परिषद् अनेक प्रकार की व्यर्थ कथाएँ करती रहती हैं। जब मैं इस परिषद् के बीच होता हूँ यह मेरी ओर ही टकटकी बाँधे रहती है और जो कुछ मैं कहता हूँ, तन्मय होकर उसे सुनती है। भगवान् जब इस परिषद् के बीच होते हैं, तो हम सभी भगवान की ओर ही टकटकी बाँधे रहते हैं और भगवान् के धर्मोपदेश को सुनने के लिए समुत्सुक रहते हैं।"
"उदायी! आज तू ही कुछ सुना।"
"भन्ते ! पिछले दिनों मेरी एक शास्ता से भेंट हुई, जो अपने को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी व निखिल ज्ञान-दर्शन का अधिकारी मानते हैं। वे यह भी मानते हैं कि मुझे चलते, खडे रहते. सोते, जागते भी निरन्तर ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है। मेरे द्वारा आरम्भ के विषय में प्रश्न पूछे जाने पर वे इधर-उधर जाने लगे और बाहर की कथाओं द्वारा मुझे विलमाने लगे। उन्होंने कोप, द्वेष और अविश्वास व्यक्त किया। मुझे उस समय भगवान् के प्रति ही प्रीति उत्पन्न हुई। मुझे यह सुनिश्चित अनुभूति हुई कि भगवान् सुगत हैं, जो इन धर्मों में कुशल
"उदायी ! वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी कौन है ?" "भन्ते ! निगंठ नातपुत्त।"
"उदायी ! जो अनेक पूर्व जन्मों का ज्ञाता है, वह मुझे पूर्वान्त (आरम्भ) के विषय में प्रश्न पूछे और उससे मैं प्रश्न पूछू । उत्तर देकर वह मुझे सन्तर्पित करे और में उसे सन्तर्पित करूँ। जो दिव्य चक्षु से सत्त्वों को च्युत होते व उत्पन्न होते देखता है, वह मुझे दूसरे छोरा (अपर-अन्त) के बारे में प्रश्न पूछे । मैं भी उससे दूसरे छोर के बारे में प्रश्न पूछं। वह मुझे उत्तर देकर सन्तर्पित करे और मैं उसे सन्तर्पित करूँ। उदायी ! पूर्व और अपर-अन्त का प्रसंग जाने दो। मैं तुझे धर्म बतला दूं-ऐसा होने पर यह होता है ; इसके उत्पन्न होने से
१. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक । देखें, भिक्षु संघ और उसका विस्तार प्रकरण
के अन्तर्गत पंचवर्गीय भिक्षु ।
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