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________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४१३ लक द्वारा निरूपित हैं । दीघ निकाय के सामञफल सुत्त में, संयुत्त निकाय के खन्धवग्ग में और मज्झिम निकाय के सन्दक सुत्त में इन्हें गोशालक द्वारा निरूपित बताया गया है। पूरणकाश्यप के नाम से इनको प्रस्तुत प्रकरण के अतिरिक्त और कहीं नहीं बताया गया है। तीन समुल्लेख जब समान रूप से मिलते हैं तो इस चतुर्थ समुल्लेख के सम्बन्ध में यथार्थता यही लगती है कि शास्त्र-संकलयिताओं की भूल ही से ऐसा हुआ है। इस प्रकार की भूलों के और भी अनेक प्रमाण त्रिपिटक-साहित्य में मिलते हैं। जैसे गोशालक के अहेतुवाद को संयुत्त निकाय' में पूरण कस्सप का बता दिया गया है। जातक अट्ठकथा में पूरण कस्सप के अभिमत को निगण्ठ नातपुत्त के नाम से बता दिया गया है। संयुत्त निकाय में गोशालक के समग्र मतवाद का उल्लेख पकुध कच्चा के बाद के अन्तर्गत कर दिया गया है। वहाँ ये छ: अभिजातियाँ भी पकुध कच्चा की बात दी गई हैं । यहाँ तक कि त्रिपिटकों के तिब्बती संस्करण में छः अभिजातियाँ अजित केसकम्बली के नाम से उल्लिखित हुई हैं । त्रिपिटकों के व्याख्याता आचार्य बुद्धघोष ने भी अनेक स्थलों पर अभिजातियों का सम्बन्ध केवल गोशालक से जोड़ा है। मूलत: अभिजातियों के गोशालक की होने में एक प्रमुख प्रमाण जैन आगम भगवती का है। वहाँ गोशालक अपने प्रवृत्त-परिहार का उल्लेख करते हुए बताता है कि उदायी के पोट्ट-परिहार में मेरी शुक्ल-अभिजाति थी। अभिजातियों सम्बन्धी जितने प्रकरण त्रिपिटकों में हैं, उसमें सबसे अधिक प्रामाणिक सामाफल सुत्त को ही माना है। इससे भी यह पुष्ट होता गया है कि अभिजातियों का सम्बन्ध १. संयुत्त निकाय, खन्धक संयुत्त, मज्झिम पण्णासक, उपयवर्ग, महालिसुत्त, २१-२-१-८ (हिन्दी अनुवाद), पृ० ३५२ । २. डॉ० वडवार्ड का भी कहना है-By a quite curious carelessness, the editors of the Kindred Sayings have imputed to Purana Kassapa... the teaching imputed in the Dihga (1-53) to makkhali gosala. He denied hetupaccyo, condition and cause, the efficacy of Karmas. He is ahetuvado, non-causationist. --Book of Kindred Sayings, vol. II, p. 618 ३. खण्ड, ५, पृ० २२७ । ४.२३-१-८। 4. Dr. A.L. Basham, History and Doctrines of Ajivikas p. 22. ६. सुमंगलविलासिनी, खण्ड १, पृ० १६२। ७. शतक १५, सूत्र ५५० । 5. That is the Dihga Nikaya shows a completeness and consistency lacking in the rest, and perhaps represents the original source of the other sources. -Dr. A.L. Basham, op. cit., p. 23. Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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