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इतिहास और परम्परा
विरोधी शिष्य
"देव ! राज्य चाहता हूँ।"
बुद्ध-हत्या का षड्यंत्र
श्रेणिक ने उस समय अजातशत्र को राज्य-भार सौंप दिया। देवदत्त अजातशत्रु कुमार के पास आया । अपनी योजनाओं से परिचित करते हुए उससे कहा---"महाराज ! अनुचरों को निर्देश दो कि वे श्रमण गौतम का प्राण-वियोजन कर दें।
__ अजातशत्र देवदत्त के ऋद्धि-बल से बहुत प्रभावित था ; अतः उसने अपने विश्वस्त चरों को तत्सम्बन्धी सारे निर्देश तत्काल दे दिये । देवदत्त ने एक पुरुष को आज्ञा दी"आवुस ! श्रमण गौतम अमुक स्थान पर विहार करता है। उसका प्राण-वियोजन कर इस रास्ते से चले आओ । उस मार्ग में दो पुरुषों को बैठाया और उन्हें निर्देश दिया- "इस मार्ग से जो अकेला पुरुष आये, उसे जान से मारकर तुम इस मार्ग से चले आओ।" इसी प्रकार चार पुरुषों को उन दो के लिए, आठ पुरुषों को उन चार के लिए और सोलह पुरुषों को उन आठ पुरुषों के वध के लिए निर्देश दिया। सभी निर्दिष्ट मार्ग और स्थान पर सावधान होकर बैठ गये। वह अकेला पुरुष ढाल-तलवार और तीर-कमान ले बुद्ध के पास गया । अविदूर में भीत, उद्विग्न, शंकित शून्य-सा एक ओर खड़ा हो गया। बुद्ध ने उसे देखा । कोमल सम्बोधन करते हुए बुद्ध ने उससे कहा- "आओ, आवुस ! आओ। डरो मत।" उस पुरुष ने ढालतलवार और तीर-कमान एक ओर डाल दिये । बुद्ध के चरणों में शिर से गिरकर बोला"भन्ते ! बाल, मूढ़ व अकुशल की भांति मैंने जघन्य अपराध किया है। मैं दुष्ट चित्त होकर आपके वध के लिए यहाँ आया। मुझे क्षमा करें। भन्ते ! भविष्य में संवर के लिए मेरे इस अपराध को अत्यय (विगत) के रूप में स्वीकार करें।'
बुद्ध ने उसे सान्त्वना के शब्दों में कहा-"यद्यपि तूने अपराध किया है, पर, भविष्य के लिए अत्यय के रूप में देखकर तू उसका धर्मानुसार प्रतिकार करता है ; अत: हम उसे स्वीकार करते हैं ।" बुद्ध ने उस समय उसे आनुपूर्वी क : कही । उस पुरुष को उसी आसन पर धर्म-चक्ष, उत्पन्न हो गया । वह बुद्ध से बोला--"भन्ते ! आज से मुझे अञ्जलिबद्ध शरणागत उपासक धारण करें।" बुद्ध ने अपने ऋद्धि-बल से देवदत्त के षड्यन्त्र को जानकर उसके जाने का मार्ग बदलवा दिया। वह पुरुष देवदत्त द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से नहीं गया । वे दोनों पुरुष व्यग्रता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। जब वह नहीं आया तो वे दोनों उसी दिशा में चले । एक वृक्ष के नीचे उन्होंने बुद्ध को बैठे देखा । अभिवादन कर वे भी एक ओर खड़े हो गये । बुद्ध ने उन्हें आनुपूर्वी कथा कही। उन्हें भी धर्म-चक्ष उत्पन्न हुआ और वे बुद्ध के अञ्जलिबद्ध शरणागत हो गये। इसी प्रकार वे चार, आठ और सोलह पुरुष भी क्रमशः बुद्ध के पास आये । उन्हें भी धर्म-चक्ष उत्पन्न हुआ और वे सभी बुद्ध के अञ्जलिबद्ध शरणागत हो गये । बुद्ध ने क्रमश: उन सब के वापिस जाने के मार्ग को बदलवा दिया। वह अकेला पुरुष देवदत्त के पास आया और वास्तविकता को उद्घाटित करते हुए उसने कहा--- "भन्ते ! मैं उन भगवान् का शरीरान्त न कर सका। वे महद्धिक महानुभाव हैं।' अन्यमनस्कता के साथ देवदत्त ने कहा-"खैर, जाने दो। तू श्रमण गौतम को मत मार, मैं ही उसे मारूंगा।"
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