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________________ २६६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खिन्ड:१ देवदत्त द्वारा प्रयत्न बुद्ध गृध्रकूट पर्वत की छाया में चंक्रमण कर रहे थे। देवदत्त पर्वत पर चढ़ा । बुद्ध को कारने के अभिप्राय से एक शिला उन पर फेंकी। दो पर्वत कूटों ने आकर उस शिला को रोका । सहसा एक पपड़ी उछली और वह बुद्ध के पैरों पर पड़ी । पैर से खून बहने लगा। बुद्ध ने ऊपर देखा और देवदत्त से कहा--- "फल्गु पुरुष ! तू ने द्वेषवश तथागत का रुधिर निकालकर बहत-पापकमाया है।" भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए उस कार्य को लक्षित कर, कहा- "देवदत्त ने यह प्रथम आनन्तर्य (मोक्ष का बाधक) कर्म किया है।" भिक्षुओं ने देवदत्त के इस कुत्सित प्रयत्न को सुना, तो वे बुद्ध की गुप्ति के लिए विहार के चारों ओर टहलते हुए उच्च स्वर से स्वाध्याय करने लगे। बुद्ध ने आनन्द के द्वारा भिक्षुओं को अपने पास बुलाया और कहा-"भिक्षुओ ! यह सम्भव नहीं है कि किसी दूसरे के प्रयत्न से तथागत का जीवन छूटे । तथागत किसी दूसरे के उपक्रम से नहीं, अपितु स्वाभाविक मृत्यु से ही परिनिर्वाण को प्राप्त हुआ करते हैं । भिक्षुओ ! तुम अपने-अपने विहार को जाओ। तथागतों की रक्षा की आवश्यकता नहीं है।" नालागिरि हाथी राजगृह में नालागिरि नामक मनुष्य-घातक और बहुत ही चण्ड हाथी था। देवदत्त ने एक दिन गजशाला में आकर महावत को आदेश दिया--"जब श्रमण गौतम इस सड़क से आये, तुम इस हाथी को खोलकर उसके सम्मुख कर देना।" महावतने आदेश शिरोधार्य किया। पूर्वाह्न के समय बुद्ध भिक्ष -संघ के साथ पिंडचार के लिए राजगृह में आये । महावत ने उस दिशा में हाथी छोड़ दिया। सहवर्ती भिक्षु भय-त्रस्त हुए और उन्होंने दो-तीन बार बुद्ध से मार्ग छोड़कर एक ओर हो जाने के लिए प्रार्थना की । उस समय बहुत सारे मनुष्य प्रासादों व हयों की छतों पर चढ़कर उत्कन्धर हो, उस दृश्य को देखने लगे । बहुत सारे अश्रद्धालु व दुर्बुद्धि कहने लगे -"अभिरूप महाश्रमण आज नाग (हाथी) से मारा जायेगा।" श्रद्धालु और पण्डित कहने लगे-"नाग नाग (बुद्ध) से संग्राम करेगा।" बुद्ध ने दूर से आते हुए नालागिरि को मैत्री-भावना से आप्लावित किया। हाथी उससे स्पृष्ट हुआ और सूंड को नीचे किये बुद्ध के पास आकर खड़ा हो गया। बुद्ध ने नालागिरि के कुम्भ का अपने दाहिने हाथ से स्पर्श किया। नालागिरि ने अपने सूंड से बुद्ध की चरण-धूलि उठाई और शिर पर डाली। वापस चला । जहाँ तक बुद्ध उसे दृष्टिगत होते रहे, वह उसकी ओर बिना पीठ किये ही लौटा। गजशाला में जाकर अपने स्थान पर खड़ा हो गया । जनता में चर्चा चल पड़ी-“देवदत्त कैसा पापी और अलक्षणी है, जो ऐसे महद्धिक महानुभाव श्रमण गौतम के वध का प्रयत्न करता है।" देवदत्त का लाभ-सत्कार घटा और बुद्ध का लाभ-सत्कार बढ़ा। १. 'कूलबालक' की प्रसिद्ध जैन कथा में भी ठीक इसी प्रकार का घटना-प्रसंग मिलता है। अविनीत शिष्य कूलबालक अपने गुरु के वध के लिए ऐसा ही उपक्रम करता है और इसी प्रकार गुरु से शाप पाता है । देखें, उत्तराध्ययन सूत्त, लक्ष्मीवल्लभ गणि कृत टीका ५०८-६। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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