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इतिहास और परम्परा]
गोशालके बारहवें स्वर्ग तक पहुंचने का उल्लेख है, जबकि अन्य अधिक से अधिक पांचवें स्वर्ग तक ही रह गये हैं।
एक अन्य प्रसंग में आजीवकों की भिक्षाचरी का श्लाघात्मक ब्यौरा देते हुए बताया गया है-"गांवों व नगरों में आजीवक साधु होते हैं। उनमें से कुछ दो घरों के अंतर से, कुछ तीन घरों के अंतर से यावत् सात घरों के अंतर से भिक्षा ग्रहण करते हैं।"१ ।
भगवती में आजीवक उपासकों के आचार-विचार का श्लाघात्मक ब्यौरा मिलता है। वहां बताया गया है-"वे गोशालक को अरिहन्त देव मानते हैं, माता-पिता की शुश्रूषा करते हैं, गूलर, बड़, बोर, अंजीर व पिलखु–इन पांच प्रकार के फलों का भक्षण नहीं करते, पलाण्डु (प्याज), लहसुन आदि कन्द-मूल का भक्षण नहीं करते, बैलों को निर्वांछन नहीं कराते, उनके नाक-कान का छेदन नहीं कराते व त्रस-प्राणियों की हिंसा हो, ऐसा व्यापार नहीं करते।"
गोशालक ने छः अभिजातियों का निरूपण किया तथा विभिन्न प्रकार के प्राणियों व भिक्षुओं को तरतमता से बांटा।
कृष्णअभिजाति-कसाई, आखेटक, लुब्धक, मत्स्य-घातक, चोर, लुण्टाक, कारागृहिक और इस प्रकार के अन्य क्रूर कर्मान्तक लोग ।
नील अभिजाति--कण्टकवृत्तिक भिक्षुक और अन्य कर्मवादी, क्रियावादी लोग। लोहित अभिजाति-एक शाटक (एक वस्त्रधारी) निर्ग्रन्थ । हरिद्रा अभिजाति- श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ व अचेलक (निर्ग्रन्थ) श्रावक । शुक्लअभिजाति-आजीवक और अनुयायी। महाशुक्ल अभिजाति-नन्द वत्स, कृश साँकृत्य और मक्खली गोशाल ।
यद्यपि इन अभिजातियों का वर्गीकरण एक रूप और सुस्पष्ट नहीं मिल रहा है, तो भी इस बात की सूचना तो सुस्पष्ट है ही कि आजीवकों ने भी अपने से दूसरा स्थान निगण्ठों को ही दिया था; जैसे कि निगण्ठों ने भी अपने से दूसरा स्थान आजीवकों को दिया। गुरु कौन ?
इतिहास और शोध के क्षेत्र में तटस्थता आये, यह नितान्त अपेक्षित है। साम्प्रदायिक व्यामोह इस क्षेत्र से दूर रहे, यह भी अनिवार्य अपेक्षित है । पर, तटस्थता और नवीन स्थापना भी भयावह हो जाती है, जब वे एक व्यामोह का रूप ले लेती हैं। गोशालक के सम्बन्ध में
१. अभिधान राजेन्द्र, भा॰ २, पृ० ११६ । २. शतक ८, उद्देशक ५। ३. कुछ लोग इन्हें पूरणकस्सप द्वारा अभिहित मानते हैं; पर, वस्तुत: यह गोशालक द्वारा
प्रतिपादित होना चाहिए। विशेष विस्तार के लिए देखें, त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त' प्रकरण के अंतर्गत 'छ अभिजातियों में निर्ग्रन्थ'। ४. अंगुत्तर निकाय, ६-६-५७; संयुत्त निकाय, २४-७-८ के आधार पर। ५. जैन आगम परिणाम और वर्ण की दृष्टि से प्राणियों को छः लेश्याओं में विभक्त करते हैं। देखें तुलनात्मक अध्ययन के लिए 'त्रिपिटकों में निगण्ड व निगण्ठ नातपुत्त' प्रकरण के अन्तर्गत 'छ अभिजातियों में निर्ग्रन्थ' ।
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