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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
विगत वर्षों में गवेषणात्मक प्रवृत्ति बढ़ी है । आजीवक मत और गोशालक पर पश्चिम और पूर्व के विद्वानों ने बहुत कुछ नया भी ढूंढ़ निकाला है। पर, खेद का विषय है कि नवीन स्थापना के व्यामोह में कुछ विद्वान् गोशालक सम्बन्धी इतिहास को मूल से ही औंधे पैर खड़ा कर देना चाह रहे हैं। डा० वेणीमाधव बरुआ कहते हैं-''यह तो कहा ही जा सकता है कि जैन और बौद्ध परम्पराओं से मिलने वाली जानकारी से यह प्रमाणित नहीं हो सकता कि जिस प्रकार जैन गोशालक महावीर के दो ढोंगी शिष्यों में से एक ढोंगी शिष्य बताते हैं; वैसा वह था। प्रत्युत उन जानकारियों से विपरीत ही प्रमाणित होता है, अर्थात् मैं कहना चाहता हूं कि इस विवादग्रस्त प्रश्न पर इतिहासकार प्रयत्नशील होते हैं, तो उन्हें कहना ही होगा कि उन दोनों में एक दूसरे का कोई ऋणी है तो वास्तव में गुरु ही ऋणी है, न कि जैनों द्वारा माना गया उनका ढोंगी शिष्य।"१ डा० बरुआ ने अपनी धारणा की पृष्ठभूमि में यह भी माना है-“महावीर पहले तो पार्श्वनाथ के पंथ में थे, किंतु, एक वर्ष बाद जब वे अचेलक हुए, तब आजीवक पंथ में चले गये।"२ इसके साथ-साथ डा० बरुआ ने इस आधार को ही अपने पक्ष में गिनाया है कि गोशालक भगवान् महावीर से दो वर्ष पूर्व जिनपद प्राप्त कर चुके थे। ३ यद्यपि डा० बरुआ ने यह भी स्वीकार किया है कि ये सब कल्पना के ही महान् प्रयोग हैं ; ४ तो भी उनको उन कल्पनाओं ने किसी-किसी को अवश्य प्रभावित किया है। तदनुसार उल्लेख भी किया जाने लगा है और वह भी द्विगुणित होकर। गोपालदास जीवाभाई पटेल लिखते हैं-"महावीर और गोशालक ६ वर्ष तक एक साथ रहे थे; अतः जैन सूत्रों में गोशालक के विषय में विशेष परिचय मिलना ही चाहिए। भगवती, सूयगडांग, उवासगसाओं आदि सूत्रों में गोशालक के विषय में विस्तृत या संक्षिप्त कुछ उल्लेख मिलते हैं। किन्तु उन सबमें गोशालक को चरित्र-भ्रष्ट तथा महावीर का एक शिष्य ठहराने का इतना अधिक प्रयत्न किया गया लगता है कि सामान्यतया ही उन उल्लेखों को आधारभूत मानने का मन नहीं रह जाता। गोशालक के सिद्धान्त को यथार्थ रूप से रखने का यथाशक्ति प्रयत्न वेणीमाधव बरुआ ने अपने ग्रन्थ५ में किया है ।"६
धर्मानन्द कोसम्बी प्रभृति ने भी इसी प्रकार का आशय व्यक्त किया है। लगता है, इस धारणा के मूल उन्नायक डा० हर्मन जेकोबी रहे हैं । तदनन्तर अनेक लोग इस पर लिखते ही गये। डा० बाशम ने अपने महानिबन्ध आजीवकों का इतिहास और सिद्धान्त में इस विषय पर और भी विस्तार से लिखा है। यह सब इस मनोवृत्ति का सूचक है कि किसी एक पश्चिमी विद्वान् ने लिख दिया, तो अवश्य वह महत्त्वपूर्ण है ही। यह सुविदित है कि गोशालक-सम्बन्धी जो भी तथ्य उपलब्ध हैं, वे जैन और बौद्ध परम्परा से ही सम्बद्ध हैं। उन आधारों पर ही हम गोशालक का समग्र जीवन-वृत्त निर्धारित करते हैं। जैन और बौद्ध
१. The Ajivikas, JDL.. vol., II. 1920, pp. 17-18. २. बही, पृ०१८। ३. वही, पृ० १८। ४. वही, पृ० २१। ५. Pre-Buddhistic, Indian Philosophy, pp. 297-318. ६. महावीर स्वामी नो संयम धर्म, (सूत्रकृतांग का गुजराती अनुवाद) पृ० ३४ । ७. S. B.E., vol. XLV, introduction, pp. XXIX to XXXII.
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