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इतिहास और परम्परा]
गोशालक परम्पराओं से हटकर यदि हम खोजने बैठे, तो संभवतः हमें गोशालक नामक कोई व्यक्ति ही न मिले। ऐसी स्थिति में एतदविषयक जैन और बौद्ध आधारों को भले ही वे किसी भाव और भाषा में लिखे गए हों, हमें मान्यता देनी ही होती है। कुछ आधारों को हम सहीं मान लें और बिना किसी हेतु के ही कुछ एक को असत्य मान लें; यह ऐतिहासिक पद्धति नहीं हो सकती। वे आधार निर्हेतुक इसलिए भी नहीं माने जा सकते कि जैन और बौद्ध, दो विभिन्न परम्पराओं के उल्लेख इस विषय में एक दूसरे का समर्थन करते हैं। डा० जेकोबी ने भी तो परामर्श दिया है-"अन्य प्रमाणों के अभाव में हमें इन कथाओं के प्रति सजगता रखनी चाहिए।"
तथारूप निराधार स्थापनाएं बहुत बार इसलिए भी आगे-से-आगे बढ़ती जाती हैं कि वर्तमान गवेषक मल की अपेक्षा टहनियों का आधार अधिक लेते हैं। प्राकृत व पालि की अनभ्यास दशा में वे आगमों और त्रिपिटकों का सर्वाङ्गीण अवलोकन नहीं कर पाते और अंग्रेजी व हिन्दी प्रबन्धों के एकांगी पुराने उनके सर्वाधिक आधार बन जाते हैं। यह देखकर तो बहुत ही आश्चर्य होता है कि शास्त्र-सुलभ सामान्य तथ्यों के लिए भी विदेशी विद्वानों व उनके ग्रन्थों के प्रमाण दिए जाते हैं। जैन आगमों के एतद्विषयक वर्णनों को केवल आक्षेपात्मक समझ बैठना भूल है। जैन आगम जहां गोशालक व आजीवक मत की निम्नता व्यक्त करते है, वहां वे गोशालक को अच्युत कल्प तक पहुंचाकर, उन्हें मोक्षगामी बतला कर
और उनके अनुयायी भिक्षुओं को वहां तक पहुँचने की क्षमता प्रदान कर उन्हें गौरव भी देते हैं। गोशालक के विषय में-वह गोशाला में जन्मा था, वह मंख था, वह आजीवकों का नायक था आदि बातों को हम जैन आगमों के आधार से माने और जैनागमों की इस बात को कि वह महावीर का शिष्य था; निराधार ही हम यों कहें कि वह महावीर का गुरु था, बहुत ही हास्यास्पद होगा। यह तो प्रश्न ही तब पैदा होता, जब जैन आगम उसे शिष्य बतलाते और बौद्ध व आजीविक शास्त्र उसके गुरु होने का उल्लेख करते। स्थिति तो यह है कि महावीर के सम्मुख गोशालक स्वयं स्वीकार करते हैं कि "गोशालक तुम्हारा शिष्य था, पर, मैं वह नहीं हूँ। मैंने तो उस मृत गोशालक के शरीर में प्रवेश पाया है। यह शरीर उस गोशालक का है, पर, आत्मा भिन्न है।" इस प्रकार विरोधी प्रमाण के अभाव में ये कल्पनात्मक प्रयोग नितान्त अर्थ शून्य ही ठहरते हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि इस निराधार धारणा के उठते ही अनेक गवेषक विद्वान् इसका निराकरण भी करने लगे हैं।
आजीवक अब्रह्मचारी
आजीवक भिक्षुओं के अब्रह्म-सेवन का उल्लेख आर्द्रककुमार प्रकरण में आया है, इसे भी कुछ एक लोग नितान्त आक्षेप मानते हैं। केवल जैन आगम ही ऐसा कहते, तो यह
१. ilaid, p. XXXIII. २. डा० कामताप्रसाद, वीर; वर्ष ३, अंक १२-१३; चीमनलाल जयचन्द शाह, उत्तर हिन्दुस्तान मां जैन धर्म, पृ० ५८ से ६१, डा० ए० एस० गोपानी Ajivika SectA New Interpretation, भारतीय विद्या, खण्ड २, पृ० २०१-१०; खण्ड ३, पृ०४७-५६। ३. महावीर स्वामी नो संयम धर्म पृ० ३४ ।
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