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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ सोचने का आधार बनता, पर, बौद्ध शास्त्र भी आजीवकों के अब्रह्म-सेवन की मुक्त पुष्टि करते हैं।' निग्गण्ठ ब्रह्मचर्यवास में और आजीवक अब्रह्मचर्यवास में गिनाए भी गए हैं। गोशालक कहते थे, तीन अवस्थाएं होती हैं-बद्ध, मुक्त और न बद्ध न मुक्त। वे स्वयं को मुक्त-कर्म-लेप से परे मानते थे। उनका कहना था, मुक्त पुरुष स्त्री-सहवास करे, तो उसे भय नहीं। ये सारे प्रसंग भले ही उनके आलोचक सम्प्रदायों के हों, पर, आजीवकों की अब्रह्मविषयक मान्यता को एक गवेषणीय विषय अवश्य बना देते हैं। एक दूसरे के पोषक होकर ये प्रसंग अपने-आप में निराधार नहीं रह जाते । इतिहासविद् डा० सत्यकेतु ने गोशालक के भगवान् महावीर से होने वाले तीन मतभेदों में एक स्त्री-सहवास बताया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है, आजीवकों को जैन आगमों का अब्रह्म के पोषक बतलाना आक्षेप मात्र ही नहीं है और कोई सम्प्रदाय-विशेष ब्रह्मचर्य को सिद्धान्त रूप से मान्यता न दे, यह भी कोई अनहोनी बात नहीं है । भारतवर्ष में अनेक सम्प्रदाय रहे हैं, जिनके सिद्धान्त त्याग और भोग के सभी सम्भव विकल्पों को मानते रहे हैं। हम अब्रह्म की मान्यता पर ही आश्चर्यान्वित क्यों होते हैं ? उन्हीं धर्मनायकों में अजित केसकम्बली जैसे भी थे, जो आत्म-अस्तित्व भी स्वीकार नहीं करते थे। यह भी एक ही प्रश्न है कि ऐसे लोग तपस्या क्यों करते थे। अस्तुः नवीन स्थापनाओं के प्रचलन में और प्रचलित स्थापनाओं के निराकरण में बहुत ही जागरूकत और गम्भीरता अपेक्षित है ।
१. Ajivakas, vol. I; मज्झिम निकाय, भाग १, पृ० ५१४; Dr. Hoernle, ___Encyclopaedia of Religion and Ethics, p. 261. २. मज्झिम निकाय, सन्दक सुत्त, २-३-६ . ३. गोपालदास पटेल, महावीर कथा, पृ० १७७; श्रीचन्द रामपुरिया, तीर्थंकर वर्धमान
पृ०८३। ४. भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृ० १६३ ।
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