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________________ इतिहास और परम्परा साधना तप किया । कुल मिलाकर कहा जा सकता है, भगवान् महावीर ने अपने अकेवली जीवन के ४५१५ दिनों में केवल ३५० दिन अन्न व पानी ग्रहण किया। ४१६५ दिन तो तप में बीते। अन्य सब तीर्थङ्करों की अपेक्षा महावीर के तप को उग्र बताया गया है । सम्बोधि-साधना प्रवजित होते ही बुद्ध ने अनूपिया नामक आम्र-उद्यान में एक सप्ताह प्रव्रज्या-सुख में बिताया। वहां से प्रस्थान कर एक ही दिन में तीस योजन पैदल चले और राजगह में प्रविष्ट हुए। वहाँ वे भिक्षा के लिए निकले । बुद्ध के रूप-सौन्दर्य को देखकर सारा नगर, धनपाल के प्रवेश से राजगृह की तरह, असुरेन्द्र के प्रवेश से देवनगर की तरह, संक्षुब्ध हो गया। राजपुरुषों ने राजा से जाकर कहा- "देव ! इस रूप का एक पुरुष शहर में मधुकरी मांग रहा है। वह देव है, मनुष्य है, नाग है या गरुड़ है, हम तो नहीं पहचान पाये।" राजा ने राजमहलों के ऊपर खड़े होकर उस महापुरुष को देखा और साश्चर्य अपने पुरुषों को आज्ञा दी-"जाओ, देखो, यदि यह अमनुष्य होगा, नगर से निकलकर अन्तर्धान हो जायेगा; देवता होगा, आकाश-मार्ग से चला जायेगा; नाग होगा, डुबकी लगा कर पृथ्वी में चला जायेगा और यदि मनुष्य होगा, तो मिली हुई मिक्षा का भोजन करेगा।" बुद्ध ने भिक्षा में प्राप्त भोजन का संग्रह किया और उसे अपने लिए पर्याप्त समझ कर जिस नगर-द्वार से शहर में प्रवेश किया था, उसी से निर्गमन कर पाण्डव पर्वत की छाया में बैठ भोजन करना आरम्भ किया। उस नीरस व रूक्ष आहार को देखते ही उनकी आंतें उलट कर मानों मुंह से बाहर निकलने लगीं। उन्होंने ऐसा प्रतिकूल भोजन तब तक आँखों से देखा भी नहीं था। भोजन से दुःखित होकर उन्होंने अपने मन को समझाया-"सिद्धार्थ ! तू ऐसे कुल में पैदा हुआ था, जहां अन्न-पान की सुलभता थी । तीन वर्ष के पुराने सुगन्धित चावल का नाना अत्युत्तम रसों से भावित भोजन तत्काल तैयार रहता था। एक गुदरीधारी भिक्षु को देखकर तू सोचा करता था, मेरे जीवन में भी क्या ऐसा समय आयेगा, जब कि इस भिक्षु की तरह भिक्षा मांगकर भोजन करूँगा । यही विचार मेरे गृह-त्याग का निमित्त था । अब तू क्या कर रहा है ?” बुद्ध ने इस प्रकार अपने मन को समझाया और विकार-रहित हो भोजन किया। राजपुरुषों ने राजा को इस घटना से सूचित किया। राजा तत्काल नगर से चलकर बुद्ध के पास पहुंचा। उनकी सरल चेष्टा से प्रसन्न होकर उन्हें सभी प्रकार के ऐश्वर्य उपहृत किये । बुद्ध ने निर्लेप भाव से उत्तर देते हुए कहा-"महाराज ! मुझे न भोग-कामना है और न वस्तु-कामना । मैं महान् अभिसम्बोधि के लिए निकला हूँ।" राजा ने बहुत प्रकार १. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ४, श्लोक ६५२-६५७; आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीय वृत्ति २२७-२ से २२६-१, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २६८-२ से ३००-२; आवश्यक नियुक्तिदीपिका, प्रथम भाग, पत्र १०७-१ से १०८ । २. उग्गं च तवोकम्मं विसेसतो वद्धमाणस्स। -आवश्यक नियुक्ति, गा० २६२ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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