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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड: ।
रहते थे । गृहस्थों के साथ किसी प्रकार का संसर्ग नहीं रखते थे। ध्यानावस्था में कुछ पूछने पर वे उत्तर नहीं देते थे। वे अबहुवादी थे अर्थात् अल्पभाषी जीवन जीते थे। सहे न जा सकें, ऐसे कटु व्यंग्यों को सुनकर भी शान्त और मौन रहते थे। कोई उनकी स्तुति करता और कोई उन्हें दण्ड से तजित करता या बालों को खींचता या उन्हें नोंचता ; वे दोनों ही प्रवृत्तियों में समचित रहते थे। महावीर इस प्रकार निर्विकार, कषाय-रहित, मूर्छा-रहित, निर्मल ध्यान और आत्म-चिन्तन में ही अपना समय बिताते।
चलते समय महावीर आगे की पुरुष-प्रमाण भूमि पर दृष्टि डालते हुए चलते। इधर. उधर या पीछे की ओर वे नहीं झांकते । केवल सम्मुखीन मार्ग पर ही दृष्टि डाले सावधानीपूर्वक चलते थे। रास्ते में उनसे कोई बोलना चाहता, तो वे नहीं बोलते थे।
महावीर दीक्षित हुए, तब उनके शरीर पर नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों का विलेपन किया हुआ था । चार मास से भी अधिक भ्रमर आदि जन्तु उनके शरीर पर मंडराते रहे, उनके मांस को नोंचते रहे और रक्त को पीते रहे। महावीर ने तितिक्षा-भाव की पराकाष्ठा कर दी। उन जन्तुओं को मारना तो दूर, उन्हें हटाने की भी वे इच्छा नहीं करते थे।
महावीर ने दुर्गम्य लाढ़ देश की वज्रभूमि और शुभ्र भूमि दोनों में विहार किया। वहाँ उन्हें अनेक विपदाएँ झेलनी पड़ी। वहाँ के लोग उन्हें पीटते, वहाँ उन्हें खाने को रूखासूखा आहार मिलता । ठहरने के लिए स्थान भी कठिनता से मिलता और वह भी साधारण । बहुत बार चारों ओर से उन्हें कुत्ते घेर लेते और कष्ट देते। ऐसे अवसरों पर उनकी रक्षा करने वाले बिरले ही मिलते। अधिकांश तो उन्हीं को यातना देते और उनके पीछे कुत्ते लगा देते । ऐसे विकट विहार में भी इतर साधुओं की तरह वे दण्ड आदि का प्रयोग नहीं करते। दुष्ट लोगों के दुर्वचनों को वे बहुत ही क्षमा-भाव से सहन करते।
कभी-कभी ऐसा भी होता कि भटकते रहने पर भी वे गांव के निकट नहीं पहुंच पाते । ज्यों-त्यों ग्राम के निकट पहुँचते, अनार्य लोग उन्हें त्रास देते और तिरस्कारपूर्वक कहते--"तू यहाँ से चला जा।" कितनी ही बार उस देश के लोगों ने लकड़ियों, मुट्ठियों, भाले की अणियों, पत्थर या हड्डियों के खप्परों से पीट-पीटकर उनके शरीर में घाव कर दिये। जब वे ध्यान में होते, तो दुष्ट लोग उनके मांस को नोंच लेते, उन पर धूल बरसाते, उन्हें ऊँचा उठाकर नीचे गिरा देते, उन्हें आसन पर से नीचे ढकेल देते ।।
महावीर की निर्जल और निराहार तपस्याओं का प्रामाणिक ब्यौरा भी अनेक परम्परा ग्रन्थों में मिलता है। एक बार उन्होंने छ: महीने का निर्जल और निराहार तप किया, एक बार पांच महीने और पच्चीस दिन का, नो बार चार-चार महीनों का, दो बार तीन-तीन महीनों का, दो बार ढाई-ढाई महीनों का, छः बार दो-दो महीनों का, दो बार डेढ़-डेढ़ महीनों का, बारह बार एक महीने का, बहत्तर बार पखवाड़े का, बारह बार तीन-तीन दिन का, दो सौ उनतीस बार दो-दो दिन को और एक-एक बार भद्र, महाभद्र, सर्वतो भद्र प्रतिमा का
१. आयारंग अ० ६, उ०१ से ४ के आधार पर।
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