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________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३६७ गपति ! श्रमण गौतम के गण तझे कब ज्ञात हए ?" "भन्ते ! पुष्प-राशि लेकर जैसे कोई माली या उसका शिष्य विचित्र माला गूंथे ; उसी प्रकार मन्ते! वे भगवान अनेक वर्ण (गुण) वाले, अनेक शत वर्ण वाले हैं। मन्ते ! प्रशंसनीय की प्रशंसा कौन नहीं करेगा?" श्रमण गौतम के सत्कार को सह न सकने से निगंठ नातपुत्त के मुंह से गर्म खून निकल आया। -मज्झिम निकाय, उपालि सुत्तन्त, २-१-६ के आधार से समीक्षा ___ उलि नामक कोई वरिष्ठ उपासक महावीर का था, ऐसा उल्लेख आगम साहित्य में कहीं नहीं मिलता है। जैन भिक्षु इतर भिक्षुओं के प्रति कुशल प्रश्न करे, ऐसी भी परम्परा नहीं है। दीर्घ तपस्वी निन्थ और बुद्ध के बीच हुए वार्तालाप और सम्बोधन आदि से यह भी प्रतिध्वनित होता है कि बुद्ध युवा हैं और दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ वयोवृद्ध । इससे महावीर का ज्येष्ठ होना और बुद्ध का छोटा होना भी पुष्ट होता है। ___ 'दण्ड' और 'कर्म' की चर्चा में दोनों ही शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। दण्ड शब्द का उपयोग आगमों में भी इसी अर्थ में मिल जाता है।' 'मनः कर्म आदि का जैन परम्परा में कोई विरोध नहीं है। महावीर के मत को एकान्त रूप से कायिक-कर्म-प्रधान बतलाना ययार्थ नहीं है। पाप-पुण्य के विचार में जैन-पद्धति के अनुसार मनः, वचन और काय ; इन तीनों की ही सापेक्षता है। मन:-कर्म की मान्यता के पोषक अनेक आधार जैनपरम्परा में प्रसिद्ध हैं। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का मनोद्वन्द्व, तण्डुल मत्स्य की मानसिक हिंसा, स्कन्दक मुनि का अपने प्राग्भव में काचर (फल विशेष) का छीलना आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। आगम तो यहाँ तक कहते हैं, एकेन्द्रिय प्राणियों के वध में और पंचेन्द्रिय प्राणियों के वध में इन्द्रियों के आधार पर पाप की न्यूनाधिकता कहना, अनार्य वचन है। डॉ. जेकोबी ने उपालि के घटना-प्रसंग पर समीक्षा करते हुए लिखा है-"महावीर का कायिक पाप को बड़ा बताना आगम-सम्मत ही है । सूयगडांग (२, ४ तथा २, ६) में इस अभिमत की पुष्टि मिलती है।"४ डॉ. जेकोबी की यह समीक्षा-यथार्थ नहीं है। क्योंकि वहाँ जो कहा गया है, इसका हार्द इससे अधिक नहीं है कि काय-दण्ड भी एक पाप-बन्ध का प्रिमित्त है और उपहास मनोदण्ड की एकान्तवादिता का किया गया है। इस प्रसंग में निर्ग्रन्थ १. स्थानांग, स्था० ३, सू० १२६ ; आवश्यक सूत्र, चतुर्थ अध्ययन । २. देखिए; 'अनुयायी राजा' प्रकरण के अन्तर्गत 'श्रेणिक बिम्बिसार'। ३. अहिंसा पर्यवेक्षण, पृ०६७। ४. S. B.E. Vol. XLV, introduction, p.XVII. ५. देखें; सम्बन्धित विवरण, समसामयिक धर्म-नायक' प्रकरण के अन्तर्गत 'आईक मुनि।' ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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