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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ पुराणों का रचना-काल विद्वानों ने ई० पू० चौथी या तीसरी शताब्दी माना है । पाजिटेर के अभिमतानुसार पुराणों का वर्तमान रूप अधिक-से-अधिक ईस्वी तीसरी शताब्दी में निर्मित हो ही चुका था । २ तित्थोगाली पइन्नय का रचना-काल लगभग तीसरी चौथी शताब्दी माना जाता है । ३ दीपवंश व महावंश का रचना-काल ईस्वी चौथी पांचवीं शताब्दी माना जाता है । * पौराणिक और जैन काल-गणना नितान्त भारतीय हैं और उनकी परस्पर संगति भी है । पौराणिक काल-गणना की वास्तविकता को इतिहासकारों ने स्वीकार किया है । इस विषय में डॉ० स्मिथ ने लिखा है : "पुराणों में दी गई राजवंशों की सूचियों की आधारभूतता Sat निक युरोपीय लेखकों ने निष्कारण ही निन्दित किया है । इनके सूक्ष्म अनुशीलन से ज्ञात होता है कि इनमें अत्यधिक मौलिक व मूल्यवान् ऐतिहासिक परम्परा उपलब्ध होती ८४ १. (क) पुराण किसी-न-किसी रूप में चौथी शताब्दी में अवश्य वर्तमान थे, क्योंकि कौटिल्य अर्थ - शास्त्र में पुराण का उल्लेख आया है । - जनार्दन भट्ट, बौद्धकालीन भारत, पृ० ३ । (ख) अधिकांश विद्वानों की सम्मति है कि अर्थ - शास्त्र में चन्द्रगुप्त मौर्य की ही शासन पद्धति का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है; अर्थ - शास्त्र ई० पू० तृतीय शतक की रचना है; अतः कहना पड़ेगा कि पुराणों की रचना ई० पू० तृतीय शतक से बहुत पहले ही हो चुकी थी । - डा० बलदेव उपाध्याय, आर्य संस्कृति के मूलाधार, पृ० १६४ । 2. The Purana Text of the Dynasties of the Kali Age, introduction, p. XII. ३. वीर निर्वाण - संवत् और जैन काल-गणना, पृ० ३०, टिप्पण सं० २७ । ४. Dr. V. A. Smith, Early History of India p. 11; जनार्दन भट्ट, बौद्धकालीन भारत, पृ० ३ । ५. मुनि कल्याण विजयजी ने 'वीर निर्वाण-संवत् और जैन काल-गणना', पृ० २५-२६ में इसका विवेचन किया है । ६. 'पुराणों में प्राचीन इतिहास प्रामाणिक रूप से भरा हुआ है, ऐसी धारणा तो अंग्रेजी पढ़े-लिखे विद्वानों की भी होने लगी है। पुराणों में दिये गये इतिहास की पुष्टि शिलालेखों से, मुद्राओं से और विदेशियों के यात्रा विवरण से पर्याप्त मात्रा में होने लगी है | अतः विद्वान् ऐतिहासिकों का कथन है कि यह पूरी सामग्री प्रामाणिक तथा उपादेय है । - आर्य संस्कृति के मूलाधार, पृ० १६७ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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