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________________ ५९४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ३. निरुक्ति-प्रतिसम्मिदा-उस अर्थ और उस धर्म में जो स्वभाव निरुक्ति हैं, अव्यभिचारी व्यवहार है, उसके अभिलाप में, उसके कहने में बोलने में, उस कहे गये, बोले गये को सुन कर ही, यह स्वभाव निरुवित है, यह स्वभाव निरुक्ति नहीं है-ऐसे उस धर्म-निरुक्ति के नाम से कही जाने वाली स्वभाव निरुक्ति मागधी सब सत्त्वों की मूल भाषा में प्रभेदगत ज्ञान निरुक्ति-प्रतिसम्भिदा है । निरुक्तिप्रतिसम्भिदा प्राप्त स्पर्श, वेदना आदि ऐसे वचन को सुन कर ही वह स्वभाव निरुक्ति है, जानता है । स्पर्श, वेदना-ऐसे आदि को, वह स्वभाव निरुक्ति नहीं ४. प्रतिभान-प्रतिसम्भिदा-सब (विषयों) में ज्ञान को आलम्बन करके प्रत्यवेक्षण करने वाले के ज्ञान का आलम्बन ज्ञान है या यथोक्त उन ज्ञानों में गोचर और कृत्य आदि के अनुसार विस्तार से ज्ञान, प्रतिभान-प्रतिसम्भिदा है। प्रत्यन-सीमान्त। प्रत्यय-भिक्षुओं के लिए ग्राह्य वस्तुएँ । १. चीवर, २. पिण्डपात, ३. शयनासन और ५. ग्लान प्रत्यय ; भिक्षुओं को इन्हीं चार प्रत्ययों की आवश्यकता होती है। प्रत्येक बुद्ध-जिसे सब तत्त्व स्वतः परिस्फुटित होते हैं। जिसे तत्त्व-शिक्षा पाने के लिए किसी गुरु की परतंत्रता आवश्यक नहीं होती। प्रतिमोक्ष-विनयपिटक के अन्तर्गत भिक्खुपातिमोक्ख और भिक्खुनी पातिमोक्ख शीर्षक से दो स्वतन्त्र प्रकरण हैं । इनमें क्रमशः दो सौ सत्ताईस और तीन सौ ग्यारह नियम हैं । मास की प्रत्येक ऋष्ण चतुर्दशी तथा पूर्णिमा को वहाँ रहने वाले सभी भिक्षु-संघ के उपोसथा गार में एकत्रित होते हैं और प्रातिमोक्ष के नियमों की आवृत्ति करते हैं। प्रातिहार्य-चमत्कार। बल (पांच)-श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा । बुद्ध-कोलाहल-सर्वज्ञ बुद्ध के उत्पन्न होने के सहस्र वर्ष पूर्व लोकपाल देवताओं द्वारा लोक में यह उद्घोष करते हुए घूमना-... 'आज से सहस्र वर्ष बीतने पर लोक में बुद्ध उत्पन्न होंगे।' बुद्ध बीज-भविष्य में बुद्ध होने वाला। बुद्धश्री-बुद्धातिशय। बुद्धान्तर-एक बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद से दूसरे बुद्ध के होने तक का बीच का समय। बोधिवृक्ष -- बोध-गया का प्रसिद्ध पोपल-वृक्ष, जिसके नीचे गौतम बुद्ध ने परम सम्बोधि प्राप्त की थी। बोधिमण्ड-बोध-गया के बुद्ध-मन्दिर का अहाता । बोधिसत्त्व-अनेक जन्मों के परिश्रम से पुण्य और ज्ञान का इतना संचय करने वाला, जिसका बुद्ध होना निश्चय होता है। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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