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________________ ४५८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन । खण्ड : १ जो भिक्षु नाना प्रकार के रुपयों (सिक्कों) का व्यवहार करे, उसको 'निस्सग्गिय पाचित्तिय' है। विषय-समीक्षा णिसीह के विषय में आगमिक-विधान है-कम-से-कम तीन वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाला भिक्षु इसका अध्ययन कर सकता है। णिसीह व अन्य छेद-सूत्र गोप्य हैं; अतः उनका परिषद् में वाचन नहीं होता और न कोई गृहस्थ विशेष सूत्रागम रूप से उसे पढ़ने का अधिकारी होता है । बौद्ध परम्परा के अनुसार विनय पिटक के विषय में भी यह मान्यता है कि वह संघ में दीक्षित भिक्षु को ही पढ़ाया जाना चाहिए।' साधारणतया इस प्रतिबन्धक-विधान को अनावश्यक और संकीर्णता का द्योतक माना जा सकता है, किन्तु वास्तव में इसके पीछे एक अर्थपूर्ण उद्देश्य सन्निहित है। इन ग्रन्थों में मुख्यतया भिक्षु-भिक्षुणियों के प्रायश्चित्त-विधान की चर्चा है । संघ है, वहाँ नाना व्यक्ति हैं। नाना व्यक्ति हैं, वहाँ नाना स्थितियाँ भी होती हैं । भगवान श्री महावीर ने कहा- "आचार दृष्टि से एक साधु पूर्णिमा का चाँद है तो एक प्रतिपदा का ।"२ तात्पर्य, भिक्षु-संघ का अभियान साधना की उच्चतम मंजिल की ओर बढ़ने वाला है। पर, उस अभियान के सभी सदस्य अपनी गति में कुछ भी न्यूनाधिक न हों, यह स्वाभाविक नहीं है। एक साथ चलने वालों में कोई पीछे भी रह सकता है, कोई लड़खड़ा भी सकता है और कोई गिर भी सकता है; गिरा हुआ पुनः उठ कर चल भी सकता है। इन सारी स्थितियों को ध्यान में रखते हुए संघ-प्रवर्तकों और संघ-नायकों को अनुभूत और आशंकित विधि-विधान सभी गढ़ देने पड़ते हैं। अप्रौढ़ व्यक्ति के लिए उन सबका अध्ययन विचिकित्साएँ पैदा करने वाला बन सकता है। वह उसे संघ के नैतिक पतन का ऐतिहासिक ब्यौरा मान सकता है। ऐसे अनेक कारणों से शास्त्रप्रणेताओं ने यदि इस प्रकार के शास्त्रों को पढ़ने की आज्ञा सर्वधारण को नहीं, दी, तो वह किसी असंगति का प्रभाव नहीं है। इनका ध्येय पाप को छिपाने का नहीं.पाप के विस्तार को रोकने का है। णिसीह और विनय पिटक दोनों ही शास्त्रों में अब्रह्मचर्य के नियमन पर खुल कर लिखा गया है। साधारण दृष्टि में वह असामाजिक जैसा भले ही लगता हो, पर, शोध के क्षेत्र में गवेषक विद्वानों के लिए विधि-विधान व चिन्तन के नाना द्वार खोलने वाला है। निशीथ के अब्रह्मचर्य-सम्बन्धी प्रायश्चित्त-विधान १. जो साधु हस्तकर्म करता है, करते को अच्छा समझता है, उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त । १. विनय पिटक, पाराजिका पालि, आमुख, ले० भिक्षु जगदीश काश्यप, पृ०६। २. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, अ० १०। ३. जे भिक्खू हत्थकम्म सुत्त करेति, करंतं वा साइज्जइ। -निशीथ सूत्र, उ० १, बोल १। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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