________________
इतिहास और परम्परा ]
आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता
अर्धमागधी कहलाने के अनेक कारण माने जाते हैं; प्रदेश विशेष में बोला जाना, अन्य भाषाओं से मिश्रित होना, ' आगमधरों का विभिन्न भाषा-भाषी होना, आदि ।
जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं के आगम शताब्दियों तक मौखिक परम्परा से चलते रहे । बौद्धागम २४ और जैनागम २६ पीढ़ियाँ बीत जाने के पश्चात् लिखे गये हैं । तब तक आगमधरों की मातृभाषा का प्रभाव उन पर पड़ता ही रहा है । आगमों की लेखबद्धता से भाषाओं से जो निश्चित रूप बने हैं, वे एक-दूसरे से कुछ भिन्न हैं । एक रूप का नाम पालि है और दूसरे रूप का नाम अर्धमागधी । दोनों विभिन्न कालों में लिखे गये; इसलिए भी भाषा सम्बन्धी अन्तर पड़ जाना सम्भव था । बुद्ध के वचनों को 'पालि' कहा गया है, इसलिए जिस भाषा में वे लिखे गये, उस भाषा का नाम भी पालि हो गया । समग्र आगम- साहित्य के साथ मिसीह और विनय पिटक का भी यही भाषा विचार है। निम्न दो उदाहरणों से दोनों शास्त्रों की भाषा तथा शैलो और अधिक समझी जा सकती है कि वे परस्पर कितनी निकट हैं :
१. "जे भिक्खु णवे इमे परिग्गहं लद्वेतिकट्ट, तेलेण वा, धरण वा, णवणीएण वा, बसाएज वा, मक्खेज्ज वा, भिलिंगेज्ज वा, मक्वंतं वा, भिलिगंतं वा साइज्जइ ।
भिक्खु णवे इमे पडिग्गहं लद्धेतिकट्टु. लोद्वेण वा, कक्केण वा, चुण्णेण वा नहाणेण वा, जाव साइज्जइ ।
जे भिक्खु णवे इमे पडिग्गहं लद्धेत्तिकट्ट, सीउदग वियडेण वा, उसिणोदग विथडेण वा, उच्छोलेज्ज वा, पषोवेज्ज वा, उच्छोलंतं वा, पधोवंतं वा साइज्जइ । ३
४५.७
— जो साधु, मुझे नया पात्र मिला है, ऐसा विचार कर उस पर तेल, घृत, मक्खन, चरवी एक बार लगाये, बार-बार लगाये, लगाते को अच्छा जाने ; उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त ।
जो साधु मुझे नया पात्र मिला है, ऐसा विचार कर, उसे लोद्रक, कोष्टक पद्म पूर्ण आदि द्रव्यों से रंगे, रंगते को अच्छा जाने, इसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त ।
जो साधु मुझे नया पात्र मिला है, ऐसा विचार कर, उसे अचित्त (धोवन) ठंडे पानी से, अचित्त गरम पानी से धोये, बार-बार धोये, धोते को अच्छा जाने, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त ।
२. यो पन भिक्खु जातरूपरजतं उग्गण्हेय्य दा उग्गण्हापेय्य वा उपनिखित्त वा सादियेय्य, निस्सग्गियं पाचित्तियं ति ।
यो पन भिक्खु नानप्पकारकं रूपिसंयवोहारं समापज्जेय्य, निस्सग्गियं पाचित्तियं ति । ४ कुँ — जो भिक्षु सोना या रजत (चाँदी आदि के सिक्के) को ग्रहण करे या ग्रहण करवाये या रखे हुए का उपयोग करे, उसे 'निस्सग्गिय पाचित्तिय' है ।
१. मगदद्धविसयभासाणिबद्ध अद्धमागहं, अट्ठारसदेसी भासाणिमयं वा अद्धमाग |
- निशीथ चूर्णि ।
२. Studies in the Origins of Buddhism, p. 573. ३. निशीथ सूत्र, उ० १४, बोल १२, १३, १४ । ४. विनय पिटक, पाराजिका पालि, ४-१८, १२५, १३० ।
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org