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________________ इतिहास और परम्परा ] परिशिष्ट जैन परिभाषिक शब्द कोशेनचा. त्रि-32000 ५५१ आयंबिल वर्द्धमान तप-जिस तप में रंधा हुआ या भुना हुआ अन्न पानी में भिगो कर केवल एक बार ही खाया जाता है, उसे आयंबिल कहते हैं । इस तप को क्रमशः बढ़ाते जाना । एक आयंबिल के बाद एक उपवास, दो आयं बिल के बाद उपवास, तीन आयंबिल के बाद उपवास, इस प्रकार क्रमशः सौ आयंबिल तक बढ़ाना और बीचबीच में इस तप में २४ वर्ष, ३ महीने और २० दिन का समय लगता है । आरा - विभाग । आरोप्य - बौद्धों का स्वर्ग । आर्त ध्यान -- प्रिय के वियोग एवं अप्रिय के संयोग में चिन्तित रहना । आशातना- - गुरुजनों पर मिथ्या आक्षेप करना, उनकी अवज्ञा करना या उनसे अपने आप को को बड़ा मानना । आश्रव - कर्म को आकर्षित करने वाले आत्म-परिणाम । कर्मागमन का द्वार । इच्छा परिमाण व्रत - आवक का पाँचवाँ व्रत, जिसमें वह परिग्रह का परिमाण करता है । ईर्ष्या - देखें, समिति | उत्तर गुण - मूल गुण की रक्षा के लिए की जाने वाली प्रवृत्तियाँ । साधु के लिए पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा, अभिग्रह आदि । श्रावक के लिए दिशाव्रत आदि । उत्तरासंग - उत्तरीय | उत्सर्पिणी - कालचक्र का वह विभाग, जिसमें प्राणियों के संहनन और संस्थान क्रमशः अधिकाधिक शुभ होते जाते हैं, आयु और अवगाहना बढ़ती जाती है तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम की वृद्धि होती जाती है । इस समय में प्राणियों की तरह पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी क्रमशः शुभ होते जाते हैं। अशुभतम भाव अशुभतर, अशुभ, शुभ, शुभतर होते हुए शुभतम होते जाते हैं । अवसर्पिणी काल में क्रमशः ह्रास होते हुए न हीनतम अवस्था आ जाती है और इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए क्रमशः उच्चतम अवस्था आ जाती है । उत्सूत्र प्ररूपणा - यथार्थता के विरुद्ध कथन करना । उदीरण --- निश्चित समय से पूर्व ही कर्मों का उदय । उवर्तन - कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग – फलनिमित्तक शक्ति में वृद्धि । उपयोग - चेतना का व्यापार - ज्ञान और दर्शन । ज्ञान पाँच हैं - १. मति, २. श्रुत, ३. अवधि, ४. मनः पर्यव और ५. केवल । उपांग-अंगों के विषयों को स्पष्ट करने के लिए श्रुतकेवली या पूर्वधर आचार्यों द्वारा रचे गये आगम । इनकी संख्या बारह है-- १. उववाई, २. रायपसेंविय ३. जीवाभिगम, ४. पत्रवणा ५ सरियपणची, ६. जम्बूद्वीप पणत्ती ७. चन्द प्रणिती ८. निरावलिया, (१) कल्पावतंसिका, (१०) पुक्तियों, (११) पुष्पबूलिया और (१२) वहिदा । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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