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________________ ४३० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ समस्या बहुत उलझ गई । सारी घटना बोधिसत्त्व तक पहुँची । उन्होंने सोचा -- कुमारों को समझा कर और राजा को भी अपने दोष की अनुभूति करा कर मुझे इस समस्या को सुलझाना चाहिए। मैं राजा को जीवन-दान दूँगा और कुमारों को इस पाप से बचाऊँगा । बोधिसत्त्व अगले दिन भिक्षाटन के लिए प्रत्यन्न ग्राम में गये तो मनुष्यों ने उन्हें बन्दर का मांस दिया। उन्होंने उसे खा लिया। उन्होंने बन्दर का चर्म भी माँग कर ले लिया। आश्रम में ला कर उन्होंने उसे सुखाया, गन्ध रहित कर ओढ़ा, पहिना और कन्धे पर भी रखा। ऐसा करने का उनका तात्पर्य था कि वे यथार्थ कह सकें कि बन्दर बहुत उपकारी था। वे उसका चर्म लेकर क्रमश: वाराणसी पहुँचे । कुमारों के समीप जाकर उन्होंने कहा -- "पितृ-हत्या दारुण कर्म है । कभी मत करना। कोई प्राणी अजर-अमर नहीं है । मैं तुम्हारा पारस्परिक मेल करवाने के लिए आया हूँ । जब सन्देश भेजू, चले आना ।" वे वहाँ से चले और नगर के आभ्यन्तरिक उद्यान में आये । शिला पर बन्दर का चमड़ा बिछा कर बैठ गये । माली ने राजा को यह सूचना दी। राजा बहुत हर्षित हुआ और अमात्यों के साथ उद्यान में पहुँचा । प्रणाम किया और कुशल-क्षेम पूछा। बोधिसत्त्व राजा के साथ बात न कर केवल उस चमड़े को ही मलते रहे । राजा को आघात-सा लगा । उसने पूछा"भन्ते ! आप मेरी उपेक्षा कर इस चमड़े को ही सहलाते जा रहे हैं, क्या यह मेरी अपेक्षा बहुत उपकारी है ?” I सहज स्वाभिमान से बोधिसत्त्व ने राजा की ओर देखा और कहा - "हाँ, महाराज ! यह बन्दर मेरा बहुत उपकारी है। इसकी पीठ पर बैठ कर मैं बहुत घूमा हूँ । यह मेरे लिए पानी का घड़ा लाया है । इसने मेरा वास स्थान प्रमार्जित किया है। इसने मेरी सामान्य सेवा की है। मैं अपने चित्त की दुर्बलता से इसका माँस खा कर उपचित हुआ हूँ । इसकी चमड़ी सुखा, फला, उस पर बैठता हूँ और उस पर लेटता हूँ । महाराज ! इस प्रकार यह मेरा बहुत उपकारी है ।" उद्देश्य से पीठ पर बोधिसत्त्व ने अमात्यों के मत का निरसन करने के बानर - चर्म के स्थान पर बानर शब्द का उपयोग किया। उन्होंने उसे पहिना; अतः चढ़कर घूमा' कहा । उसे कन्धे पर रखकर पानी का घड़ा लाये थे; अतः 'पानी का घड़ा लाया' कहा। उस चर्म से भूमि का प्रमार्जन किया था; अत: 'वास स्थान प्रमार्जित किया' कहा । लेटते समय पीठ का और उठ कर चलते समय पैरों का स्पर्श हुआ; अत: 'मेरी सामान्य सेवा की' कहा । भूख लगने पर उसका मांस मिल जाने से खा गये; अतः 'अपनी दुर्बलता के कारण मांस खाया' कहा । अमात्यों ने ताली बजाकर उनका उपहास किया और कहा – “प्रव्रजित के कर्म को देखो । बन्दर का वध कर; मांस खा चमड़ी को लिए घूमता है ।" बोधिसत्त्व ने सब कुछ देखा । वे सोचने लगे, ये अज्ञ हैं । ये नहीं जानते कि मैं इनके मत का निरसन करने के लिए ही यह चर्म लेकर आया हूँ । मैं यह प्रकट नहीं होने दूँगा । उन्होंने अहेतुवादी को बुलाया और पूछा"आयुष्मान् तुमने मेरा उपहास क्यों किया ?" ” "क्योंकि यह मित्र - द्रोही-कर्म और प्राण-वध "जो तेरे में और तेरे मत में श्रद्धा रखता है, उसके लिए दुःख की क्या बात है ? तेरा तो सिद्धान्त है कि स्वभाव से ही सब कुछ होता है । अनिच्छा से ही करणीय तथा अकरणीय किया जाता है । यदि यह मंत्र कल्याणकारी है, अकल्याणकारी नहीं है और यदि Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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