SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिहास और परम्परो] त्रिपटिकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ४३१ सत्य ही है तो बन्दर की हत्या ठीक ही हुई है। यदि अपने मत के दोष को समझ सकेगा तो मेरी निन्दा नहीं कर सकेगा; क्योंकि तेरा सिद्धान्त ऐसा ही है।" बोधिसत्त्व ने अहेतुवादी का विग्रह कर उसे हतप्रभ कर दिया। राजा भी परिषद् में बैठा था। वह भी हतप्रभ हो अध:सिर बैठा रहा। बोधिसत्त्व ने ईश्वर-कर्तृत्ववादी से कहा-"आयुष्मान् ! यदि तू ईश्वर-कर्तृत्व में विश्वास करता है तो तूने मेरा उपहास क्यों किया ? यदि ईश्वर ही सारे लोक की जीविका की व्यवस्था करता है, उसी की इच्छानुसार मनुष्य को ऐश्वर्य मिलता है, उस पर विपत्ति आती है, वह भला-बुरा करता है और मनुष्य ईश्वर का ही आज्ञाकारी है, तो ईश्वर ही दोषी ठहरता है । यदि यही मत है तो अपने दोष को समझो। मेरी निन्दा मत करो।" इस प्रकार जैसे आम की मोगरी से ही आम गिराये जाते हैं; उसी प्रकार उसके हेतुओं से ही उसके सिद्धान्त का निरसन किया। ईश्वर-कर्तृत्ववादी को हतप्रभ कर बोधिसत्त्व ने पूर्वकृतवादी को पूछा- "आयुष्मन् ! यदि तू पूर्वकृत को ही सत्य मानता है तो तू ने मेरा उपहास क्यों किया ? यदि पूर्वकृत-कर्म के कारण ही सुख-दुःख होता है, यदि यहाँ का पाप-कर्म प्राचीन पाप-कर्म से ऋण-मुक्ति का कारण होता है, तो यहां पाप किसे स्पर्श करता है ? यदि यही मत है तो अपने दोष को समझो । मेरी निन्दा मत करो।' उच्छेदवादी को सम्बोधित करते हुए कहा- "आयुष्मन् ! यदि यहां किसी का किसी से सम्बन्ध नहीं है; अत: प्राणियों का यहीं उच्छेद हो जाता है, कोई भी परलोक नहीं जाता, तो फिर तू ने मेरा उपहास क्यों किया? पृथ्वी आदि चार महाभूतों से ही प्राणियों के रूप की उत्पत्ति होती है। जहाँ से रूप उत्पन्न होता है, वहीं वह विलीन हो जाता है। जीव यहीं जीता है, परलोक में विनष्ट हो जाता है। पण्डित और मूर्ख सभी का यहीं उच्छेद हो जाता हैं। यदि ऐसा है तो यहाँ पाप किसे स्पर्श करता है ? यदि यही मत है तो अपने दोष को समझो । मेरी निन्दा मत करो।" । क्षतविधवादी को सम्बोधित करते हुए कहा- "आयुष्मन् ! जब तेरा यह मत है कि माता-पिता और ज्येष्ठ बन्धु को भी मार कर अपना स्वार्थ-साधन करना चाहिए और वैसा प्रयोजन हो तो पुत्र और स्त्री की भी हत्या कर देनी चाहिए, तो तू ने मेरा उपहास क्यों किया?" सब मतों का निराकरण करने के अनन्तर बोधि परिव्राजक ने कहा -"हमारी तो यह मान्यता है, जिस वृक्ष की छाया में बैठे अथवा लेटे, उसकी शाखा तक को न तोड़े। मित्रद्रोह पातक है। तुम्हारा मत है, प्रयोजन होने पर उसे जड़ से भी उखाड़ दो। मेरे तो पाथेय का प्रयोजन था; अत: बानर की हत्या को मैं समुचित ही मानता हूँ।" पांचों अमात्यों के हतप्रभ व हतबुद्धि हो जाने पर बोधिसत्त्व ने राजा को सम्बोधित करते हुए कहा-"महाराज ! राष्ट्र के इन पाँच लुटेरों को आप आश्रय दे रहे हैं; अत: आप कितने बड़े मूर्ख हैं। ऐसे व्यक्तियों के संसर्ग से ही आदमी इस लोक में तथा परलोक में महान् दु.ख का अनुभव करता है। ये अहेतुवादी, ईश्वर कर्तृत्वादी, पूर्वकृतवादी, उच्छेदवादी और क्षतविधवादी लोक में असत्पुरुष हैं; जो मूर्ख होते हुए भी अपने आपको पण्डित मानते हैं। ये स्वयं भी पाप करते हैं और दूसरों से भी करवाते हैं। असत्पुरुष की संगति दुःखद तथा कटुक फल देने वाली होती है। पूर्व समय में मेंढ़े से मिलता-जुलता एक भेड़िया रहता था। वह ____ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy