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________________ इतिहास और परम्परा] गोशालक आठ चरम मंखलिपुत्र गोशालक अपने अभिलषित में असफल होकर कोष्ठक चैत्य के बाहर निकला। वह विक्षिप्त-सा चारों दिशाओं में देखता, गर्म-गर्म दीर्घ उच्छवास-नि:श्वास छोड़ता, अपनी दाढ़ी के बालों को नोंचता, गर्दन को खुजलाता, दोनों हाथों से कभी कडत्कार करता और कभी हिलाता, पांवों को पछाड़ता, 'हाय ! मरा! हाय ! मरा !' चिल्लाता हुआ हालाहला कुम्हारिन के कुम्भकारापण में पहुंचा। वहाँ अपने दाह की शान्ति के लिए कच्चा आम चूसता, मद्यपान करता, बार-बार गीत गाता, बार-बार नाचता और बार-बार हालाहला कुम्हारिन को हाथ जोड़ता हुआ मिट्टी के बर्तन में रहे हुए शीतल जल से अपना गात्र सिंचित करने लगा। __ श्रवण भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थों को आमंत्रित कर कहा-"आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरे वध के लिए जिस तेजोलेश्या का प्रहार किया था, वह १. अंग, २. बंग, ३. मगध, ४. मलय, ५. मालव, ६. अच्छ, ७. वत्स, ८. कौत्स, ६. पाठ, १०. लाट, ११. व्रज, १२. मौलि, १३. काशी, १४. कौशल, १५. अबाध और १६. संभुक्तर – इन सोलह जनपदों की घात करने, वध करने, उच्छेद करने तथा भस्म करने में समर्थ थी। अब वह कुम्भकारापण में कच्चा आम चूसता हुआ, मद्यपान कर रहा है, नाच रहा है तथा बार-बार हाथ जोड़कर ठण्डे पानी से शरीर को सिंचित कर रहा है। अपने इन दोषों को छिपाने के लिए वह आठ चरम (अन्तिम) बातें प्ररूपित कर रहा है-चरम पान, चरम गान, चरम नाट्य, चरम अंजली-कर्म, चरम पुष्कल-संवर्त महामेघ, चरम सेचनक गन्धहस्ती, चरम महाशिला कंटक संग्राम और इस अवसर्पिणी काल में चरम तीर्थंकर के रूप में उसका सिद्ध होना । ठंडे पानी से शरीर सिंचित करने के दोष को छिपाने के लिए वह चार पानक-पेय और चार अपानक-अपेय पानी प्ररूपित कर रहा है। चार पानक इस प्रकार है-१. गाय के पृष्ठ भाग से गिरा हुआ, २. हाथ से उलीचा हुआ, ३. सूर्य ताप से तपा हुआ और ४. शिलाओं से गिरा हुआ। चार अपानक—पीने के लिए नहीं, परन्तु, दाहादि उपशमन के लिए व्यवहार योग्य ; इस प्रकार हैं-१.स्थालपानी-पानी में भींगे हुए शीतल छोटे-बड़े बर्तन । इन्हें हाथ से स्पर्श करें, परन्तु, पानी न पीए । २. त्वचापानी-आम, गुठली और बेर आदि कच्चे फल मुंह मे चबाना, परन्तु, उनका रस न पीना, ३. फली का पानी-उड़द मूंग, मटर आदि की कच्ची फलियाँ मुंह में लेकर चबाना, परन्तु, उनका रस न पीना, ४. शुद्ध पानी - कोई व्यक्ति छः मास तक शुद्ध मेवा-मिष्ठान्न खाए। उन छः महीनों में दो महीने भूमिशयन, दो मास तक पट्ट-शयन और दो मास तक दर्भ-शयन करे, तो छठे मास की अन्तिम रात्रि में महाऋद्धि-सम्पन्न मणिभद्र और पूर्णभद्र नामक देव प्रगट होते हैं। वे अपने शीतल और आर्द्र हाथों का स्पर्श करते हैं । यदि व्यक्ति उस शीतल स्पर्श का अनुमोदन करता है, तो आशीविष प्रगट होता है और अनुमोदन नहीं करता है, तो उसके शरीर से अग्नि समुत्पन्न ज्वालाओं में उसका शरीर भस्म हो जाता है। तदनन्तर वह व्यक्ति सिद्ध, बुद्ध एवं विमुक्त हो जाता है।" उसी नगरी में अयंपुल नामक एक आजीविकोपासक रहता था । एक दिन मध्य रात्रि में कुटुम्ब-चिन्ता करते हुए उसके मन में विचार आया कि हल्ला का आकार कैसा होता है ? वह अपने धर्माचार्य गोशालक से समाधान करने के लिए हालाहला कुम्भकारापण में आया। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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