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इतिहास और परम्परा परिनिर्वाण
३२९ अन्तिम वर्ष का विहार दोनों का ही राजगृह से होता है। महावीर पावा वर्षावास करते हैं और कार्तिक अमावस्या की शेष रात में वहीं निर्वाण प्राप्त करते हैं। पावा और राजगृह के बीच का कोई घटनात्मक विवरण नहीं मिलता और न कोई महावीर की रुग्णता का ही उल्लेख मिलता है। बद्ध का राजगह से कशीनारा तक का विवरण विस्तत रूप से मिलता है। उनका शरीरान्त भी सुकरमद्दव से उद्भूत व्याधि से होता है। उनकी निर्वाण-तिथि वैशाखी पूर्णिमा मुख्यतः मानी गई है; पर, सर्वास्तिवाद-परम्परा के अनुसार तो उनकी निर्वाण-तिथि कार्तिक पूर्णिमा है।'
निर्वाण से पूर्व दोनों ही विशेष प्रवचन करते हैं। महावीर का प्रवचन दीर्घकालिक होता है और बुद्ध का स्वल्प-कालिक । प्रश्नोत्तर-चर्चा दोनों की विस्तृत होती है। अनेक प्रश्न शिष्यों द्वारा पूछे जाते हैं और दोनों द्वारा यथोचित उत्तर दिये जाते हैं। दोनों ही परम्पराओं के कुछ प्रश्न ऐसे लगते हैं कि वे मौलिक न होकर पीछे से जुड़े हुए हैं। लगता है, जिन बातों को मान्यता देनी थी, वे बातें महावीर और बुद्ध के मुंह से कहलाई गईं। अन्तिम रात में दोनों ही क्रमशः राजा हस्तिपाल और सुभद्र परिव्राजक को दीक्षा प्रदान करते हैं।
निर्वाण-गमन जानकर महावीर के अन्तेवासी गणधर गौतम मोहगत होते हैं और रुदन करते हैं-बुद्ध के उपस्थापक आनन्द मोहगत होते हैं और रुदन करते हैं। गौतम इस मोहप्रसंग के अनन्तर ही केवली हो जाते हैं; आनन्द कुछ काल पश्चात् अर्हत् हो जाते हैं।
___ आयुष्य-बल के विषय में महावीर और बुद्ध; दोनों सर्वथा पृथक् बात कहते हैं। महावीर कहते हैं- "आयुष्य-बल बढ़ाया जा सके, न कभी ऐसा हुआ है और न कभी ऐसा हो सकेगा।" बुद्ध कहते हैं-"तथागत चाहें तो कल्पभर जी सकते हैं।"
___महावीर का निर्वाण-प्रसंग मूलतः कप्पसुत में उपलब्ध होता है । कप्पसुत से ही वह टीका, चूणि व चरित्र-ग्रन्थों में पल्लवित होता रहा है। कप्पसुत्त महावीर के सप्तम पट्टधर आचार्य भद्रबाहु द्वारा संकलित माना जाता है । वैसे कप्पसुत्त में देवद्धि क्षमाश्रमण तक कुछ संयोजन होता रहा है, ऐसा प्रतीत होता है। देवद्धि क्षमाश्रमण का समय ईस्वी सन् ४५३ माना गया है; पर, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि महावीर का निर्वाण-प्रसंग उस सूत्र का मूलभूत अंग ही है । भद्रबाहु का समय ईसा पूर्व ३७१-३५७ का माना गया है।
बुद्ध की निर्वाण-चर्चा दीघ निकाय के महापरिनिध्वानसुत्त में मिलती है । महापरिनिव्वानसुत्त में निर्वाण-प्रसंग के अतिरिक्त अन्य भी बहुत सारी चर्चाएँ हैं, जो अन्य त्रिपिटक ग्रन्यों में यत्र-तत्र मिलती हैं । इससे ऐसा लगता है कि यह भी संगृहीत प्रकरण है। 'दीघ निकाय मूल त्रिपिटक-साहित्य का अंग है, पर, महापरिनिव्यानसुत्त के विषय में ह्रीस डेविड्स, ई० जे. थॉमस और विटरनिट्ज का भी अभिमत है कि वह कुछ काल पश्चात् संयोजित हुआ
१. E. J. Thomas, Life of Buddha, p. 158. २. Rhys Davids, Dialogues of Buddha, Vol. II, p. 72. 3. E. J. Thomes, Life of Buddha, p. 156. ४. History of Indian Literature, Vol. II, p. 38-42.
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