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________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातापुत्त ४२५ बहुत वर्षों बाद सांसारिक सुखों को ठुकरा कर वे हिमालय चले गये । परिव्राजक बन कर फल-मूल खाते हुए वहाँ रहने लगे। बहुत वर्ष बीत गये । एक बार वर्षा ऋतु में हिमालय से उतरे। चारिका करते हुए क्रमशः वाराणसी पहुंचे। राजा के उद्यान में ठहरे । अगले दिन परिव्राजक-विधि से भिक्षाटन करते हुए राज-द्वार पर पहुँचे। गवाक्ष में खड़े राजा ने उन्हें दूर से ही देखा, तो वह उनकी शान्त प्रकृति से बहुत प्रभावित हुआ। उन्हें अपने भवन में लाया और राज-सिंहासन पर बिठाया। कुशल-क्षेम के अनन्तर धर्मोपदेश सुना और श्रेष्ठ भोजन परोसा। बोधिसत्त्व जब भोजन कर रहे थे, उन्होंने सोचा-'राज-कुल में दोष बहुत होते हैं। शत्रु भी बहुत रहते हैं । आपत्ति आने पर यहाँ मेरी रक्षा कौन करेगा ?' उन्होंने चारों ओर दृष्टि डाली। कुछ ही दूरी पर खड़ा, राज-प्रिय एक पिंगल वर्ण कुत्ता उन्हें दिखलाई दिया। बोधिसत्त्व भात का एक बड़ा गोला उसे देना चाहते थे। राजा ने उनके इस इंगित को समझ लिया। उसने कुत्ते का बर्तन मँगवाया और उसमें मात डाला । बोधिसत्त्व ने अपने हाथों वह बर्तन कुत्ते को दिया और अपना भोजन समाप्त किया। राजा ने बोधिसत्त्व से अपने यहां नैरन्तरिक प्रवास की भावमरी प्रार्थना की। बोधिसत्त्व ने उसे स्वीकार किया। राजा ने उनके लिए राजोद्यान में पर्णशाला बनवाई, परिव्राजक की समस्त आवश्यकताओं से उसे पूर्ण किया और उन्हें वहाँ बसाया। राजा प्रतिदिन दो-तीन बार उनकी सेवा में आता। भोजन के समय उन्हें राज-सिंहासन पर ही बैठाता और वे राजा का भोजन ही ग्रहण करते । क्रमशः बारह वर्ष बीत गये। राजा के पांच अमात्य थे, जो राज्य की अर्थ और धर्म-सम्बन्धी अनुशासना करते थे। वे क्रमश: अहेतुवादी, ईश्वर-कर्तृत्ववादी, पूर्वकृतवादी, उच्छेदवादी तथा क्षतविधवादी थे। अहेतुवादी जनता को सिखलाता था; ये प्राणी संसार में ऐसे ही उत्पन्न होते हैं। ईश्वरकर्तृत्ववादी जनता को सिखलाता था; यह संसार ईश्वर द्वारा निर्मित है। पूर्वकृतवादी जनता को सिखलाता था; प्राणियों को जो सुख-दुःख की अनुभूति होती है, वह पूर्वकृत कर्मों के अनुसार ही होती है। उच्छेदवादी जनता को सिखलाता था; यहाँ से कोई परलोक नहीं जाता। इस लोक का यहीं उच्छेद हो जाता है । क्षतविधवादी की शिक्षा थी; माता-पिता को मार कर भी अपना स्वार्थ-साधन करना चाहिए। राजा के द्वारा वे न्यायाधीश के पदों पर नियुक्त थे। रिश्वत खा कर वे असत्य निर्णय देते थे। एक द्वारा अधिकृत वस्तु या भूमि को अन्य के अधीन कर देते थे। इस तरह वे सत्य का गला घोंट रहे थे और अपना अर्थ-भण्डार भी भरते जा रहे थे। एक बार एक व्यक्ति ने किसी व्यक्ति पर झूठा अभियोग लगाया। उन न्यायाधीशों ने वास्तविकता के विरुद्ध निर्णय दिया। सच्चा हार गया । बोधिसत्त्व भिक्षा के लिए राजगृह में प्रवेश कर रहे थे। उस ने उन्हें देखा तो रोता हुआ वह उनके पास आया और प्रणाम करते हुए कहा-"भन्ते ! आप राज-गृह में भोजन करते हैं। न्यायाधीश रिश्वत लेकर जब संसार का विनाश कर रहे हैं तो आप उपेक्षाशील क्यों हैं ? पाँचों न्यायाधीशों ने झूठे अभियोक्ता से रिश्वत ले कर मुझे अपने स्वामित्व से वंचित कर दिया है।" बोधिसत्त्व ने उसके प्रति करुणा दिखलाई । न्यायालय में गये, उचित निर्णय करवाया और उसे अपना स्वामित्व दिलवाया। जनता गगन-भेदी शब्दों में एक बार 'साधु', 'साधु' पुकार उठी। जनता का कोलाहल राजा के कानों तक पहुंचा। राजा ने उसके बारे में जिज्ञासा Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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