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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
काल-गणना के इस समीक्षात्मक प्रकरण में महावीर को ज्येष्ठता के विषय में मुनिश्री ने दहर सुत्त तथा समिय सुत्त के दो अपूर्व और अकाट्य प्रमाण दे दिये हैं । ये प्रमाण एतद् विषयक चर्चा में प्रथम बार ही प्रयुक्त हुए हैं। प्रमाण अपने आप में इतने स्पष्ट हैं कि दोनों युग-पुरुषों के काल-क्रम सम्बन्धी विवाद सदा के लिए समाप्त हो जाता है ।
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पाँचवें प्रकरण में दोनों ही युग-पुरुषों की पूर्वजन्म विषयक समानता का विवरण दिया गया है। मरीचि तापस के विषय में प्रथम तीर्थंकर ऋषभ घोषणा करते हैं कि यह अन्तिम तीर्थंकर महावीर होगा । सुमेध तापस के विषय में प्रथम बुद्ध दीपंकर घोषणा करते हैं—यह अन्तिम बुद्ध गौतम होगा । इस अनूठी समानता का परिचय सम्भवतः विज्जगत् को सर्वप्रथम ही मिलेगा ।
प्रकरण में जन्म से प्रव्रज्या तक की विविध समान धारणाओं का ब्यौरा दिया गया है, जो युगपत् रूप से सर्वप्रथम ही साहित्यिक क्षेत्र में आई हैं ।
अगले तीन प्रकरणों में क्रमश: साधना, परिषह और तितिक्षा, कैवल्य और बोधि युगपत् रूप से प्रस्तुत किये गये हैं । अनूठी समानताएँ सामने आई हैं ।
दसवें प्रकरण में दोनों धर्म-संघों की दीक्षाओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है । बढ़ी चढ़ी संख्याओं पर समीक्षा भी की गई है। परिव्राजकों व तापसों के दीक्षित होने का वर्णन दोनों ही परम्पराओं में बहुलता से मिलता है। महावीर के धर्म-संघ में कोडिन्न, दिन्न, सेवालये तीन तापस अपने पाँच सो शिष्यों सहित दीक्षित होते हैं । बुद्ध के धर्म संघ में उरुवेल काश्यप, नन्दी काश्यप, गया काश्यप- - ये तीन प्ररिव्राजक अपने सहस्र शिष्यों सहित दीक्षित होते हैं ।
ग्यारहवें प्रकरण में महावीर और बुद्ध के निकटतम अन्तेवासियों का बहुत ही रोचक एवं ज्ञानवर्धक परिचय दिया गया है । समान घटनाओं को खोला भी गया है। उदाहरणार्थ“गौतम महावीर - निर्वाण के पश्चात् व्याकुल हुये । आनन्द (बुद्ध) निर्वाण से पूर्व ही एक ओर जाकर दीवाल की खूँटी पकड़ कर रोने लगे; जब कि उन्हें बुद्ध के द्वारा उसी दिन निर्वाण होने की सूचना मिल चुकी थी। महावीर निर्वाण के पश्चात् गौतम उसी रात को केवली हो गये ! बुद्ध-निर्वाण के पश्चात् प्रथम बौद्ध संगीति में जाने से पूर्व आनन्द भी अर्हत् हो गये । गौतम की तरह इनको भी अर्हतु न होने की आत्म-ग्लानि हुई । "
बारहवें प्रकरण में प्रमुख उपासक उपासिकाओं के जीवन-वृत्त व घटना-प्रसंग दिये गये हैं । 'श्रमणोपासक' व 'श्रावक शब्द दोनों ही परम्पराओं में एकार्थवाची हैं ।
तेरहवें प्रकरण में दोनों के दो प्रमुख विरोधी शिष्यों का वर्णन है । दोनों ही शिष्यों ने अपने-अपने शास्ता को मारने का प्रयत्न किया; दोनों ही प्रभावशाली थे; दोनों के ही पास लब्धि - बल था; दोनों को ही अन्त समय में आत्मग्लानि हुई। दोनों के ही घटना-प्रसंग बहुत विकट एवं समान हैं ।
चौदहवें "अनुयायी राजा' प्रकरण में श्रेणिक बिम्बिसार, अजातशत्रु कूणिक, अभयकुमार, उद्रायण, उदयन, चण्डप्रद्योत प्रसेनजित् चेटक, विड्ड्म आदि राजाओं का दोनों परम्पराओं से सम्मत परिचय प्रस्तुत किया गया है । उक्त राजाओं में अधिकांश को दोनों ही परम्पराएँ अपना-अपना अनुयायी मानती हैं । यथार्थ में वे किस परम्परा के अनुयायी थे, यह पा लेना एक जटिल प्रश्न था । मुनि श्री ने एक तटस्थ पर्यवेक्षण एवं प्रामाणिक समीक्षा से यह
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