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________________ इतिहास और परम्परा सम्पादकीय xxxi निर्णायक रूप से बताया है कि कौन राजा यथार्थ में किस परम्परा का अनुयायी था। इस प्रश्न पर इतनी विस्तृत एवं आधारपूर्ण समीक्षा साहित्य के क्षेत्र में सचमुच ही एक नई देन है। पन्द्रहवाँ “परिनिर्वाण" प्रकरण कितना सरस व समीक्षापूर्ण है, इसका परिचय हमें उसके प्रथम परिच्छेद से ही मिल जाता है। वहां बताया गया है- 'महावीर का परिनिर्वाण 'पावा' में और बुद्ध का परिनिर्वाण 'कुसिनारा' में हुआ। दोनों क्षेत्रों की दूरी के विषय में दीघनिकाय-अट्टकथा (सुमंगल विलासिनी) बताती है-"पावानगरतो तीणि गावुतानि कुसिनारानगरं" अर्थात् पावानगर से तीन गव्यूत (तीन कोस) कुसिनारा था। बुद्ध पावा से मध्याह्न में विहार कर सायंकाल कुसिनारा पहुँचते हैं। वे रुग्ण थे, असक्त थे। विश्राम लेलेकर वहाँ पहुँचे। इससे भी प्रतीत होता है कि पावा से कुसिनारा बहुत ही निकट था। कपिलवस्तु (लुम्बिनी) और वैशाली (क्षत्रिय-कुण्डपुर) के बीच २५० मील की दूरी मानी जाती है। जन्म की २५० मील की क्षेत्रीय दूरी निर्वाण में केवल ६ ही मील की रह गई। कहना चाहिए, साधना से जो निकट थे, वे क्षेत्र से भी निकट हो गये।" सोलहवें प्रकरण में महावीर और बुद्ध के विहार-क्षेत्रों की समयसारिका प्रस्तुत की गई है। उससे यह भी जाना जा सकता है कि दोनों के कौन-कौन से वर्षावास एक साथ एक ही नगर में हुए। सतरहवें सुविस्तृत प्रकरण में भगवान महावीर व जैन परम्परा से सम्बन्धित वे संदर्भ संग्रहीत हैं, जो बौद्ध साहित्य में उल्लिखित हैं। डॉ० जेकोबी ने "जैन सूत्रों" की भूमिका में इस प्रकार के ११ संदर्भ संगृहीत किये थे। उन्होंने इसे तब तक की उपलब्ध सामग्री का समग्र संकलन माना था। मुनि श्री ने प्रस्तुत प्रकरण में ५१ संदर्भ संग्रहित कर दिये हैं। मल त्रिपिटकों के संदर्भ तो समग्र रूप से इसमें हैं ही तथा अट्ठकथाओं व इतर ग्रन्थों के भी उपलब्ध संदर्भ इसमें ले लिये गये हैं । शोध-विद्वानों के लिए यह एक अपूर्व संग्रह बन गया है। प्रत्येक संदर्भ पर समीक्षात्मक टिप्पण भी लिखे गये हैं। कुछ टिप्पण इतने विस्तृत हैं कि वे समीक्षात्मक लेख ही बन गये हैं । छः अभिजातियों का निरूपण पूरण कस्सप के नाम से भी मिलता है और गोशालक के नाम से भी। मुनि श्री ने इस गुत्थी को तार-तार कर खोल दिया है। उनका निष्कर्ष है- छः अभिजातियाँ मूलत: गोशालक द्वारा ही प्रतिपादित हुई हैं। अभिजातियों के विषय में अर्थ-भेद भी एक पहेली बन रहा था । प्रस्तुत प्रकरण में उसे भी समाहित कर दिया गया है । छः लेश्याओं के साथ छः अभिजातियों की संक्षिप्त तुलना भी कर दी गई है। अठारहवाँ प्रकरण 'आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता" का है। इसमें जैन-आगम निशीथ और विनयपिटक की समानता को खोला गया है तथा उनके रचना-काल, रचयिताओं एवं भाषा-साम्य पर विचार किया गया है। जैन और बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों के आचारनियमों का सुन्दर व सरस विवरण दिया गया है। दोनों धर्म-संघों की दीक्षा-प्रणाली एवं प्रायश्चित्त-विधि पर भी समीक्षा की गई है। इस प्रकार उक्त अठारह प्रकरणों में मूल ग्रन्थ सम्पन्न होता है । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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