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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
बुद्ध की मान्यताओं का अनुसरण करता रहा हो । जहां तक मैं जान पाया हूं' उसके बाद उसने बुद्ध के अथवा बौद्ध संघ के अन्य किसी भिक्षु के न तो कभी दर्शन किए और न उनके सा धर्म-चर्चा ही की और न मेरे ध्यान में यह भी आता है कि उसने बद्ध के जीवन-काल में भिक्ष संघ को कभी आर्थिक सहयोग भी किया हो।
"इतना तो अवश्य मिलता है कि बुद्ध-निर्वाण के पश्चात उसने बुद्ध की अस्थियों की
, वह भी यह कहकर कि 'मैं भी बुद्ध की तरह एक क्षत्रिय ही हैं और उन अस्थियों पर फिर उसने एक स्तप बनवाया। दूसरी बात-उत्तरवर्ती ग्रन्थ यह बताते हैं कि बद्धनिर्वाण के तत्काल बाद ही जब राजगृह में प्रथम संगीति हुई, तब अजातशत्रु ने सप्तपर्णी गुफा के द्वार पर एक सभा-भवन बनवाया था, जहां बौद्ध पिटकों का संकलन हुआ। पर, इस बात का बौद्ध धर्म के प्राचीनतम और मौलिक शास्त्रों में लेशमात्र भी उल्लेख नहीं है। इस प्रकार बहुत सम्भव है कि उसने बौद्ध धर्म को बिना स्वीकार किये ही उसके प्रति सहानुभूति दिखाई हो। यह सब उसने केवल भारतीय राजाओं की उस प्राचीन परम्परा के अनुसार ही किया हो कि सब धर्मों का संरक्षण राजा का कर्तव्य होता है।"
दोहद और जन्म
कुणिक के जन्म और पितृ-द्रोह का वर्णन दोनों ही परम्पराओं में बहुत कुछ समान रूप से मिलता है। जैन आगम निरयावलिया और बौद्ध पिटक दोघ निकाय-अट्ठकथा में एतद् विषयक वर्णन मिलता है । दोनों ही परम्पराओं के अनुसार इसके पिता का नाम श्रेणिक (बिम्बिसार) है। माता का नाम जैन परम्परा के अनुसार चेलणा तथा बौद्ध परम्परा के अनसार कौशल देवी था। माता ने गर्भाधान के अवसर पर सिंह का स्वप्न देखा। बौद्ध परम्परा में ऐसा उल्लेख नहीं है । गर्भावस्था में माता को दोहद उत्पन्न हुआ। जैन परम्परा के अनुसार दोहद था-राजा श्रेणिक के कलेजे का मांस तल कर, भून कर मैं खाऊँ और
ऊं। बौद्ध परम्परा के अनुसार दोहद था-राजा श्रेणिक की बाह का रक्त पीऊँ। दोनों ही परम्पराओं के अनुसार राजा ने दोहद की पूर्ति की। जैन परम्परा के अनुसार अभयकुमार ने ऐसा छदम रचा कि राजा के कलेजे का मांस भी न काटना पड़े और रानी को यह अनभव
रहे कि राजा के कलेजे का मांस काटा जा रहा है और मुझे दिया जा रहा है। बौद्ध परम्परा के अनुसार वैद्य के द्वारा बाहु का रक्त निकलवा कर दोहद की पूर्ति की। दोहदपूर्ति के पश्चात् रानी इस घटना-प्रसंग से दुःखित होती है और गर्भस्थ बालक को ही नष्टभ्रष्ट करने का प्रयत्न करती है। बौद्ध परम्परा के अनुसार वह ऐसा इसलिए करती है कि ज्योतिषी उसे कह देते हैं-यह पितृहतक होगा। जैन परम्परा के अनुसार वह स्वयं ही सोच लेती है कि जिसने गर्भस्थ ही पिता के कलेजे का मांस माँगा है, न जाने जन्म लकर वह क्या करेगा?
श्रेणिक का पुत्र-प्रेम
जन्म के अनन्तर जैन परम्परा के अनुसार चेलणा उसे अवकर पर डलवा देती है।
१. Buddhist India, pp. 15-16.
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