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________________ इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-२ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ५८५ उपेक्षा पारमिता-जिस प्रकार पृथ्वी प्रसन्नता और अप्रसन्नता से विरहित होकर अपने पर फेंके जाने वाले शुचि-अशुचि पदार्थों की उपेक्षा करती है, उसी प्रकार सदैव सुख-दु:ख के प्रति तुल्यता की भावना रखते हुए उपेक्षा की चरम सीमा के अन्त तक पहुँचना। उपोसथ-उपासक किसी विशेष दिन स्वच्छ कपड़े पहिन किसी बौद्ध विहार में जाता है। घुटने टेक कर भिक्षु से प्रार्थना करता है—भन्ते ! मैं तीन शरण के साथ आठ उपोसथ शील की याचना करता हूँ। अनुग्रह कर आप मुझे प्रदान करें। वह उपासक क्रमशः तीन बार अपनी प्रार्थना को दुहराता है । भिक्षु एक-एक शील कहता हुआ रुकता जाता है और उपासक उसे दुहराता जाता है । उपासक समग्र दिन को विहार में रह कर, शीलों का पालन करता हुआ, पवित्र विचारों के चिन्तन में ही व्यतीत करता है। कितने ही उपासक जीवन-पर्यन्त आठ शीलों का पालन करते हैं । वे आठ शील इस प्रकार हैं : १. प्राणातिपात से विरत होकर रहूँगा, २. अदत्तादान से विरत होकर रहूँगा, ३. काम-भावना से विरत होकर रहूँगा, ४. मृषावाद से विरत होकर रहूँगा, ५. मादक द्रव्यों के सेवन से विरत होकर रहूँगा, ६. विकाल भोजन से विरत होकर रहूँगा, ७. नृत्य, गीत, वाद्य, अश्लील हाव-भाव तथा माला, गंध, उबटन के प्रयोग से, शरीर विभूषा से विरत होकर रहूंगा और ८. उच्चासन और सजी-धजी शय्या से विरत होकर रहूँगा। उपोसथागार-उपोसथ करने की शाला। ऋद्धिपाद (चार)-सिद्धियों के प्राप्त करने के चार उपाय-छन्द (छन्द से प्राप्त समाधि), विरिय (वीर्य से प्राप्त समाथि), चित्त (चित्त से प्राप्त समाधि), वीमंसा (विमर्ष से प्राप्त समाधि)। ऋद्धि प्रातिहार्य-योग-बल से नाना चामत्कारिक प्रयोग करना। इसके अनुसार भिक्ष एक होता हुआ भी अनेक रूप बना सकता है। और अनेक होकर एक रूप भी बना सकता है। चाहे जहाँ आविर्भूत हो सकता है और तिरोहित भी हो सकता है। बिना टकराए दीवाल, प्रकार और पर्वत के आर-पार भी जा सकता है, जैसे कि कोई आकाश में जा रहा हो । थल में जल की तरह गोते लगा सकता है। जल-तल पर थल की तरह पल सकता है । आकाश में भी पक्षी की तरह पलथी मारे ही उड़ सकता है। तेजस्वी सूर्य व चन्द्र को हाथ से छू सकता है तथा उन्हें मल सकता है और ब्रह्मलोक तक सशरीर पहुँच सकता है। औपपातिक–देवता और नरक के जीव । कथावस्तु-विवाद । करुणा-संसार के सभी जीवों के प्रति करुणा-भाव । कल्प-असंख्य वर्षों का एक काल-मान। ये चार प्रकार के हैं-१. संवर्त कल्प, २. संवर्त स्थायी कल्प, ३. विवर्त कल्प और ४. विवर्त स्थायी कल्प। संवर्त कल्प में प्रलय और Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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