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५८६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ विवर्त कल्प में स.ष्टि का क्रम उत्तरोत्तर चलता है। देवों के आयुष्य आदि कल्प के द्वारा मापे जाते हैं। एक योजन लम्बा, चौड़ा और गहरा गड्ढा सरसों के दानों से भरने के पश्चात् प्रति सौ वर्ष में एक दाना निकालने पर जब सारा गड्ढा खाली होता
है, तब जितना काल व्यतीत होता है, उससे भी कल्प का काल-मान बड़ा है। कल्पिक कुटिया-भण्डार। काय स्मृति-भिक्षु अरण्य, वृक्षमूल या शून्यागार में बैठता है । आसन मार काया को सीधा
रखता है। स्मृतिपूर्वक श्वास लेता है और स्मृतिपूर्वक ही श्वास छोड़ता है । दीर्घ श्वास लेते समय और छोड़ते समय उसे पूर्ण अनुभूति होती है । हृस्व श्वास लेते समय और छोड़ते समय भी उसे पूर्ण अनुभूति रहती है। सारी काया की स्थिति को अनुभव करते हुए श्वास लेते और छोड़ने की प्रक्रिया का अभ्यास करता है। कायिकी संस्कारों (क्रियाओं) को रोक कर श्वास लेने और छोड़ने का अभ्यास करता है। इस प्रकार प्रमाद-रहित, तत्पर और संयम युक्त हो विहार करते समय उसके लोभपूर्ण स्वर नष्ट हो जाते हैं। चित्त अभ्यन्तर में ही स्थित होता है, एकाग्र होता है और समाहित
होता है। कार्षापण-उस समय का सिक्का । कुतूहलशाला–वह स्थान, जहाँ विभिन्न मतावलम्बी एकत्र होकर धर्म-चर्चा करते हैं और जिसे सभी उपस्थित मनुष्य कौतूहल पूर्वक सुनते हैं। कुशल धर्म-दस शोभन नैतिक संस्कार, जौ भले कार्यों के अनुष्ठान के प्रत्येक क्षण में विद्य____ मान रहते हैं । पुण्य कर्म। क्लेश-चित्त-मल। क्रियावादी-जो क्रिया का ही उपदेश करता है। शान्ति पारमिता-जिस प्रकार पृथ्वी अपने पर फैकी जाने वाली शुद्ध, अशुद्ध, सभी वस्तुओं
को सहती है, क्रोध नहीं करती; प्रसन्नमना ही रहती है; उसी प्रकार मान-अपमान
सहते हुए शान्ति की सीमा के अन्त तक पहुंचना । कोणाश्रव-जिनमें वासनाएँ क्षीण हों। यह अर्हत् की अवस्था है। गनिक-प्रस्थान करने वाले भिक्षु । घंटिकार-महाब्रह्मा। चक्ररत्न–चक्रवर्ती के सात रत्नों में पहला रत्न, जो सहस्त्र अरों का, नाभि नेमि से युक्त,
सर्वाकार परिपूर्ण और दिव्य होता है । जिस दिशा में वह चल पड़ता है, चक्रवर्ती की सेना उसकी अनुगामिनी हो जाती है। जहाँ वह रुकता है, वहीं सेना का पड़ाव होता है। चक्र प्रभाव से बिना युद्ध किये ही राजा अनुयायी बनते जाते हैं और चक्रवर्ती उन्हें पंचशील
का उपदेश देता है। चतुमधुर स्नान-चार मधुर चीज हैं-घी, मक्खन, मधु और चीनी-इसमें स्नान ।
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