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इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-३ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश
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चक्रवर्ती–१. चक्र रत्न, २. हस्ति रत्न, ३. अश्व रत्न ४. मणि रत्न, ५. स्त्री रत्न, ६. गृह
पति रत्न, ७. परिणायक' रत्न; इन सात रत्नों और १. परम सौन्दर्य, २. दीर्घायुता, ३. नीरातकता, ४. ब्राह्मण, गृहपतियों की प्रियता इन चार ऋद्धियों से युक्त
महागुभाव। चक्रवाल-समस्त ब्रह्माण्ड में असंख्य चक्रवाल होते हैं। एक चक्रवाल एक जगत के रूप
में होता है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई १२,०३, ४५० योजन तथा परिमण्डल (घेरा) ३६,१०,३५० योजन होता है । प्रत्येक चक्रवाल की मोटाई २,४०,००० योजन होती है तथा चारों ओर से ४,८०,००० योजन मोटाई वाले पानी के घेरे से आधारित है। पानीके चारों ओर ६,६०,००० योजन मोटाई वाले वायु का घेरा है। प्रत्येक चक्रवाल के मध्य में सिनेरू नामक पर्वत है, जिसकी ऊँचाई १,६८,००० योजन है । इसका आधा भाग समुद्र के अन्दर होता है और आधा ऊपर । सिनेरू के चारों ओर ७ पर्वत मालाएँ हैं -१. युगन्धर, २., ईसघर. ३. करविका, ४. सुदस्सन, ५. नेमिधर, ६. विनतक और ७. अस्सकण्ण । इन पर्वतों पर महाराज देव और उनके अनुचर यक्षों का निवास है। चक्रवाल के अन्दर हिमवान पर्वत है, जी १०० योजन ऊँचा है तथा ८४,००० शिखरों वाला है। चक्रवाल-शिला चक्रवाल को घेरे हुए है। प्रत्येक चक्रवाल में एक चन्द्र और एक सूर्य होता है । जिनका विस्तार क्रमशः ४६ तथा ५० योजन है। प्रत्येक चक्रवाल में त्रयस्त्रिश भवन, असुर भवन तथा अवीचिमहानिरय हैं। जम्बूद्वीप, अपरगोयान, पूर्व विदेह तथा उत्तर कुरु-चार महाद्वीप हैं तथा प्रत्येक महाद्वीप ५०० छोटे द्वीपों के द्वारा घेरा हुआ है। चक्रवालों के बीच लोकान्तरिक निरय हैं। सूर्य का प्रकाश केवल एक
चक्रवाल को प्रकाशित करता है; बुद्ध के तेज से समस्त चक्रवाल प्रकाशित हो सकते हैं। चातुर्दीपिक-चार द्वीपों वाली सारी पृथ्वी पर एक ही समय बरसने वाला मेघ । चातुमहाराजिक देवता-१. धृतराष्ट्र, २. विरूढ़, ३. विरूपाक्ष और ४. वैश्रवण
चातुर्महाराजिक देव कहलाते हैं। मनुष्यों के पचास वर्ष के तुल्य चातुर्महाराजिक देवों का एक अहोरात्र होता है। उस अहोरात्र से तीस अहोरात्र का एक मास, बारह मास का एक वर्ष और पांच सौ वर्ष का उनका आयुध्य होता है। ये देवेन्द्र शक्र के अधीन
होते हैं। चातुर्याम-महावीर का चार प्रकार का सिद्धान्त । इसके अनुसार :
१. निर्ग्रन्थ जल के व्यवहार का वारण करता है। २. निर्ग्रन्थ सभी पापों का वारण करता है । ३. निर्ग्रन्थ सभी पापों के वारण से धुतपाप हो जाता है।
१. मज्झिमनिकाय २-५-१ तथा ३-३-६ और सुत्तनिपात, महावग्ग, सेलसुत्त के अनुसार
चक्रवर्ती का सातवाँ रत्न परिणायकरत्न है और दीघनिकाय, महापदान तथा चक्कवति सीहनाद सुत्त के अनुसार सातवां रत्न पुत्ररत्न है ।
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